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________________ मिले, पर अपने मन को चुप बैठाने में वे भी कायर पाये गये । इसी तरह त्यागी, तपस्वी और ज्ञाननिष्ठ भी बहुत से सुने गये पर परीक्षण से प्रतीति हुई कि संकल्प विकल्प, इच्छायें और ज्ञेय-निष्ठा में वहाँ भी कोई फर्क नहीं था। फलतः कोई यदि कह देता कि 'अमुक व्यक्ति ने अपने मन को साध लिया है, तो उक्त बात को मैं नहीं मानता था, क्योंकि मन-साधना वाली इस कहावत को चरितार्थ करके दिखानाबहुत बड़ी बात अर्थात् कड़ी समस्या है। इन महापुरुष जैसे कोई विरले ही मनोजयी हो सकते हैं। अहो ! क्या है यह इनकी अद्भूत-दशा। बाबा की यह स्वाभाविक आत्मदशा हमारे हृदय-पट पर मनोजय की छाप लगा देती है। फिर उल्लास में आकर उस मुमुक्ष ने बाबा आनन्दधन के नाम का बुलंद आवाज से जयघोष किया। वह जयघोष बाबा के ब्रह्मरन्द्र में जब टकराया तब उनकी समाधि खुली। उस दशा में बाबा के चहरे पर अनुभव-लाली टपक रही थी, जिसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि बाबा आनन्द की गंगा में गोते लगाकर ही बाहर आये हैं। ९. मुमुक्षु-भगवन् ! अपने दुस्साध्य मन को आपने साध कर स्ववश बना लिया है-इस बात को आगम-प्रमाण और अनुमानप्रमाण से मेरी चपल बुद्धि भी स्वीकार करती है। क्योंकि शास्त्रों के संकेत अनुसार आपकी दृष्टि, अधखुली और स्थिर है, आपका शरीर चापल्य रहित और ओजसपूर्ण है ; आपकी वाणी आत्मप्रदेश के स्पर्श पूर्वक नाभिमण्डल की तह से उठती हुई गम्भीर, दिव्य, मधुर और निदं भ है अतः श्रोताओं की अनुभव तन्त्रियों को झंकृत कर देती है। आपके विचार, वाणी और वत्तंन में परस्पर अविरोध देखने में आता है, जो कि मुझ जैसे नास्तिक को भी आस्तिक बना देता है। आपके चहरे पर आत्मानन्द की लाली छायो हुई है [ १३९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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