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को वशवर्ती बनाने में, आश्चर्यजनक जड़-विज्ञान के आविष्कारों में, विमान के बिना ही आकाश में उड़ने में, और ऐसे बहुत से विकट कार्यों में समर्थ हैं किन्तु वे ही लोग अपने मन को दबाकर चैतन्य-प्रदेश में फँसाने में असमर्थ हैं। क्योंकि बड़े-बड़े पराक्रमी पशु-मानव और देव-दानवों में से ऐसा कोई समर्थ माई का लाल ( माड़ीजाया ) मनविजेता आज तक मेरे देखने में नहीं आया था अतः मेरी मति नास्तिक-सी हो गयी थी, पर आज सौभाग्यवश इन मन विजेता साक्षात् जिन-चैतन्य मूर्ति सन्त भगवन्त का दर्शन पाकर मेरी मति की नास्तिक-गति आस्तिकता के रूप में बदल गई।
८. साधकीय जीवन में अपने मन कोस्वाधीन बनाना आसान नहीं है क्योंकि साधना-क्षेत्र की सार-रूप सबसे बड़ी और कड़ी साधना ही मनोजय की साधना है। शेष तप, जप और विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का खप–इत्यादि सभी तो केवल इसी साधना की पूर्ति के लिये उप-साधन-मात्र हैं। इसीलिये विश्व के सभी आस्तिक दर्शनों ने एक स्वर में पुकारा कि "जिसने अपने मन को साधा अर्थात स्व-वश बना लिया उसने संसार में सब कुछ सिद्ध कर लिया"-यह कहावत भ्रान्त नहीं ; सही है। यदि मनोजय सुलभ होता तो सिद्धपद पाना भी सुलभ हो जाता।
मुझे मनोविज्ञान के समझने की बड़ी लगन है अतः मनोजय के बारे में जिस किसी व्यक्ति का नाम सुनता हूँ कि 'सा' ब ! फलाँ सन्त पक्के मनोजयी हैं-तुरन्त उनकी जाँच करने चला जाता हूँ
और गहराई से छानबीन करने पर उन्हें मनचले ही पाता हूँ। क्योंकि मुझे बहुत से मुख-मौनियों को मिलने का सुअवसर मिला, पर निकट के परिचय से सुनिश्चित-रूप में जान गया कि मन-मौन के सम्बन्ध में उन्होंने भी अपनी हार मानली है, अपने शरीर की कई दिनों तक एक आसन पर चुप बैठाने वाले भी बहुत-से आसनसिद्ध साधक
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