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________________ जिनागमों में स्पष्ट रूप से बतायी गई है। तदनुसार जिन महापुरूषों ने केवल त्याग विधि को ही अपनाया हो - ऐसा नहीं, प्रत्युत त्याग - ग-विधि के साथ ग्रहण - विधि को भी अच्छी तरह अपना कर स्वात्म-तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया हो, वे ही सद्गुरु के रूप में स्वीकार्य हैं । त्याग विधि और ग्रहणविधि का परस्पर अन्योन्य- आश्रय है, अतः त्याग के बिना ग्रहण नहीं होता और ग्रहण के बिना त्याग नहीं होता । फिर भी जिन्हें ग्रहणविधि के प्रति जरा-सा भी ध्यान नहीं है और केवल नाम मात्र की त्यागविधि अपना कर अपने आपको त्यागी - गुरु मानते-मनवाते हैं, वे सचमुच गुरुपद के योग्य नहीं है, क्योंकि उनकी इष्टानिष्ट कल्पना मन्द नहीं हुई । जब तक इष्टानिष्ट कल्पना है तबतक शुद्धोपयोग नहीं है और शुद्धोपयोग के बिना स्वतत्त्व का साक्षात्कार तक नहीं होता; सर्वविरति मूलक गुरुपद की तो बात दूर है । उस दशा में साधक स्वभाव का त्यागी है, विभाव का नहीं । जिन्हें शुद्धोपयोग का लेशतः भी परिचय नहीं है अतएव जो केवल पर परिचय की धामधूम में दिन रात लगे रहते हैं, उन्हें यदि गुरु मान लिया जाय, तब ऐसा स्वभाव त्यागी तो सारा संसार ही है, फिर गुरु-शिष्य के व्यवहार का भी क्या प्रयोजन है ? ग्रहणविधि से आत्म साक्षात्कार हुये बिना ही अपनायी हुई त्यागविधि ने कियाजड़त्व को जन्म दिया और त्यागविधि को ठुकरा - कर कोरी ग्रहण विधि की बातों ने शुष्कज्ञानियों की सृष्टि रची | साधना क्षेत्र में क्रियाजड़ और शुष्कज्ञानी दोनों ही असाध्य - - रोगी हैं । उनके शरण में जाने पर शरणागत का रोग भी असाध्य हो कर उसे भी अशान्त कर देता है, अतः आत्मशान्ति के गवेषकों को चाहिये कि वे सदैव उन लोगों से सावधान रहें । ८. साधु-जीवन में जैसे विषयी - कषायी - लोगों का संग सर्वथा स्याज्य है ; वैसे ही क्रियाजड़ और शुष्कज्ञानियों का संग भी सर्वथा १२२ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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