SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्याज्य है, क्योंकि वे लोग आत्मानुभव से शून्य होने से मत-ममत्व, मान-बड़ाई आदि दोषों में आबद्ध-दोषी हैं, अतः जो गुरु, उन दोषीजनों के संग-प्रसंग को छोड़ कर केवल सद्गुरु के शरणागत मुमुक्षु शिष्य मण्डल के साथ ही संग-प्रसंग रखते हों ; एवं मुक्ति के साक्षात् कारणरूप शुद्ध चैतन्य भावात्मक सामथ्य-योग को धारण करके प्रातीभ-ज्ञान प्रकाश द्वारा असंगानुष्ठान में दत्त-चित्त होकर सतत मोक्ष मार्ग में प्रगति कर रहे हों-वे समर्थ योगी ही सद्गुरु के रूप में स्वीकार्य हैं, दूसरे नहीं ; क्योंकि केवल इच्छा योगी और शास्त्रयोगी आत्म-शान्तिप्रदायक आत्मानुभूति के मार्ग में खुद ही प्रवेशित न होने से उसमें वे दूसरों को प्रवेशित कराने में भी असमर्थ हैं। सूर्योदय के पूर्व अरुणोदय के प्रकाश तुल्य निरावरण चैतन्यप्रकाश को 'प्रातिभ-ज्ञान' कहते हैं, कि जिसके द्वारा दृष्टि-पथ में आने वाले विश्व के स्व-पर पदार्थ स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। फलतः शास्त्रों की मदद के बिना ही साधक केवल स्वानुभूति के बल से ही मोक्ष मार्ग में गमन करने में समर्थ होता है, अतः वह ‘समर्थयोगी' कहलाता है एवं उसकी साधना-प्रवृत्ति 'सामर्थ्य-योग' कहलाती है। ९.१०. वास्तव में मोह से छुट्टी लेकर यदि ज्ञायक-सत्ता को देखा जाय तो उसमें जन्म-मरण आदि संसार है ही नहीं और जहाँ संसार ही न हो वहाँ बन्ध-मोक्ष के कल्पना-प्रवाह में क्यों बहना ? चाहे त्रिविध-कर्म-जाल अपना नाटक कैसा भी दिखाता रहे, पर उसे देखने-जानने मात्र से ज्ञाता-दृष्टा को क्या लाभ-हानि ? फिर भी जो अपनी ज्ञायक-सत्ता से विचलित हो कर जन्म-मरण, बन्ध-मोक्ष, लाभ हानि, हर्ष-शोक, सुख-दुख आदि द्वन्द्व भावों में उलझकर क्षुभित रहते हैं, वे स्वानुभूति के मार्ग से दूर हैं। विश्व में प्राणी मात्र के ये जो नाना प्रकार के शरीर हैं, वे तो केवल पुद्गल-स्कन्धों के ही आकार-प्रकार हैं और उन सभी में जो [.१२३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy