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(७) शब्द के फलितार्थ को घटित होने पर ही उस वस्तु को उसी रूप में स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को ' एवंभूत - नय' कहते हैं ।
ये सातों नय, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- इन दोनों नयों में समाविष्ट हो जाते हैं । वस्तुमात्र सामान्य विशेष उभयात्मक है । सामान्य के दो भेद हैं—–एक तिर्यक् सामान्य – अनेक पदार्थों में रही हुई समानता, जैसे कि सभी प्रकार की गायों में गोत्व; और दूसरा उद्ध' तासामान्य — क्रमशः आगे-पीछे होने वाली विविध पर्यायों में रहने वाला अन्वय, जैसे कि पिण्ड, स्थान, कोश आदि विविध अवस्थाओं में रहने वाली मिट्टी । विशेष के भी दो भेद हैं, एक पर्यायविशेष - जैसे कि आत्मा में होने वाली हर्ष - विषाद आदि अवस्थायें ; और दूसरा व्यतिरेक - विशेष - जैसे कि गाय और भैंस दोनों पदार्थों में असमानता है । इनमें से सामान्य अंश के द्वारा वस्तु को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को द्रव्यार्थिकनय और विशेष अंश के द्वारा वस्तु को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को पर्यायार्थिकनय कहते हैं ।
ये नय - परिज्ञान, वस्तु व्यवस्था समझने के लिए है; परन्तु वस्तुव्यवस्था में उलझने के लिए नहीं है । जो गुरु नय-परिज्ञान द्वारा वस्तु व्यवस्था की उलझन से मुक्त होकर स्वरूपस्य रह सकते हैं, उन्हें ही वस्तु व्यवस्था का व्याख्यान करने का अधिकार है और उस वाणी से ही स्व-पर कल्याण हो सकता है ।
७. साधनाकाल की साधक - क्रियाओं में विधिमुख द्वारा प्रयोजनरूप स्व- द्रव्य- क्षेत्र-व -काल-भाव युक्त अपने आत्म-तत्त्व का एवं तदनुकूल सहजदर्शन, सहज- ज्ञान, सहजसुख और सहजवीर्य रूप स्वभाव का अविरोध रूप से ग्रहण तथा निषेधमुख द्वारा स्व-सत्ता - भिन्न समस्त जड़-चेतनात्मक परतत्त्व, परभाव एवं पर के निमित्त से उत्पन्न होने वाले राग आदि सभी विभाव-भाव - इन सबका सर्वथा परित्याग करना साधक के लिये नितान्त आवश्यक है - ऐसी सुदृढ़ शिक्षा
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