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के साधन-रूप सम्यक्-दर्शन-आराधना, सम्यक्-ज्ञान-आराधना, सम्यक्-चारित्र-आराधना एवं सम्यक्-तप-आराधना-इन चारों ही आराधना में श्रोताओं को जोड़ने में समर्थ है।
जिनकी वाणी उत्सूत्र-प्ररूपणा, मनभेद, मतभेद, संघभेद और आत्मक्लेश उत्पन्न करने वाली हो वह तो श्रवण के भी योग्य नहीं है अतः मुमुक्षुओं को वैसी वाणी से सदा सावधान रहना चाहिये ।
सप्तनय का स्वरूप निम्न प्रकार है(१) शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय आदि के आश्रय
से होने वाले उपचार को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को
'नगम-नय' कहते हैं। (२) अनेक तत्त्व और अनेक व्यक्तियों को किसी एक सामान्य-तत्त्व के
आधार पर एक रूप में संकलित कर लेने वाले दृष्टिकोण को
'संग्रह-नय' कहते हैं। (३) सामान्य-तत्त्व के आधार पर एक-रूप में संकलित वस्तुओं का
प्रयोजन के अनुसार पृथक्करण करने वाले दृष्टिकोण को 'व्यवहार
नय' कहते हैं। (४) द्रव्य की वर्तमान अवस्था मात्र को ग्रहण करने वाले दृष्टिकोण
को 'ऋजुसूत्र-नय' कहते हैं। (५) शाब्दिक प्रयोगों में आनेवाले दोषों का परिहार करके तदनुसार
अर्थभेद को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को 'शब्द-नय'
कहते हैं। (६) शब्दभेद के अनुसार अर्थभेद को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण
को 'समभिरूढ़-नय' कहते हैं। १२० ..
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