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देह जेल में कैदीवत् फंस कर चौरासी का चक्कर काटता रहता है। यह पर-भाव निष्ठा है और इसका कारण मिथ्या-श्रद्धा-प्रयोग है अतः वह हेय है। जबकि स्वरूपानुसन्धान मूलक श्रद्धा के अन्तर्मुखी सम्यक् प्रयोग से स्वभाव-परिणमन होता है तब चेतन का दैहिक आदि में मोह नहीं होता। उस दशा में उसे शुभाशुभभाव तरंग नहीं उठते अतः चैतन्य-प्रदेश में क्षोभ रहित केवल वीतरागता ही बनी रहती हैचेतन की यह अक्षुब्ध दशा, यही आत्म शान्ति का स्वरूप है । फलतः चैतन्य-प्रदेश में पुण्य-पापात्मक नवीन कर्म-शृखला का आगमन रुक कर संवर होता है और पुरानी कर्म-शृंखला चूर-चूर हो बिखर जाने रूप निर्जरा होती रहती है, यावत् सम्पूर्ण कर्म-निर्जरा हो जाने पर आत्मा देह-जेल-यात्रा से सर्वथा मुक्त होकर परमात्मा बन जाता है, अतएव सम्यक् श्रद्धा-प्रयोग उपादेय है। क्योंकि इसीसे आत्म शान्तिप्रापक स्वभाव निष्ठा सधती है।
सभी जिनेन्द्रदेवों ने अनन्त भाव-भेदों के विस्तार से जो यह पदार्थ-विज्ञान बताया है वह अनुभव का विरोधी न होने से अविरुद्ध एवं हेय के परित्याग पूर्वक उपादेय के अभ्यास से चित्त-शुद्धि का कारण होने से अत्यन्त विशुद्ध है, अतः इसे जिस रूप में कहा उसी रूप में सही समझ कर श्रद्धा के सम्यक्-प्रयोग को साधकीय जीवन में अपना लेना-यही श्री शान्तिनाथ भगवान के चरण-सेवा की किंवा मोहक्षोभ रहित परम-शान्ति-पद प्राप्त कराने वाली उपासना की प्रथम भूमिका है।
४. उपरोक्त भूमिका में प्रवेश करने के लिये सर्व-प्रथम निर्मोही परम शान्तरस की प्रत्यक्ष सजीवनमूत्ति श्री सद्गुरु का अनन्य आश्रय, साधक को नितान्त आवश्यक है। क्योंकि वे भव-रोग-भिषग्वर भव. रोगी को नब्ज देख कर आत्म-अशान्ति का निदान करके रोगी की प्रकृति अनुसार उचित औषध, उसकी सेवन-विधि, पथ्य-पालन आदि
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