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________________ कर सकते हैं। गाड़ी के पहिये की धुरीवत् काल-द्रव्य के निमित्त से सभी द्रव्यों का अवस्थान्तर होता है। इसी तरह किसी भी दूसरे की प्रेरणा के बिना ही विश्वतन्त्र का स्वतः प्रवर्तन हो रहा है। और विश्व अनादि अनन्त है। स्व भवनम् अर्थात् अपनी द्रव्य मर्यादा में अपने गुण और पर्यायों के कार्यान्वित बने रहने का स्वभाव ; एवं उनके, स्व-द्रव्य-मर्यादा को लाँघ कर विमुख कार्यान्वित बने रहने को विभाव किंवा परभाव कहते हैं । चेतन का चेतन-स्वभाव और जड़ का जड़ स्वभाव है। चेतन में जड़ स्वभाव नहीं है और जड़ में चेतन स्वभाव नहीं है। चेतन और पुद्गलों की अनन्त शक्तियों में से एक विभाविनी-शक्ति भी है अतः उससे उनका विभाव-परिणमन अर्थात् स्व-द्रव्य-मर्यादा के विमुख चारों ओर स्वगुण-पर्यायों का झुकाव और प्रवर्तन भी हो सकता है ; जबकि शेष चारों में वह शक्ति न होने से वैसा प्रवर्तन भी नहीं हो सकता। स्वभाव-परिणमन से शान्ति की ओर विभाव-परिणमन से अशान्ति की अनुभूति होती है और ये उभय प्रकार की अनुभूतियाँ केवल चेतन को ही हो सकती है ; पर ज्ञान-शून्य जड़ों को कदापि नही हो सकती। परिणमन में सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं अतः चेतन भी स्वतंत्र है। चेतन के परिणमन में चेतना का प्रवत्तंन ही मुख्य है और वह श्रद्धा प्रयोग चैतन्य प्रकाश को फैलाकर उसे धारण-पोषण किये रहने के प्रयोग को श्रद्धा कहते हैं । स्वरूपानुसन्धान के बिना ही श्रद्धा के केवल बहिर्मुखी मिथ्या-प्रयोग के द्वारा विभाव-परिणमन हो करके चेतन, देह आदि में मोहित रहता है। उस दशा में चैतन्य प्रदेश में प्रतिक्षण राग-द्वेष मूलक शुभाशुभ भाव तरंग उठा करती है और उनसे चेतन निरन्तर क्षुभित बना रहता है। चेतन की यह क्षुभित दशा ही अशान्ति का स्वरूप है। फलतः चैतन्य-प्रदेश में पुण्य-पापात्मक जड़कर्म शृंखला का आश्रव-आगमन होकर चेतन स्वतः उनसे आबद्ध हो . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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