________________
१६. श्री शान्ति-जिन-स्तवनम् शान्ति का स्वरूप :
१-२ एकदा एक मुमुक्षु आत्मशान्ति की खोज में तीर्थयात्रा करता हुआ सन्त आनन्दघनजी के सत्संग में आया और उनकी प्रशान्त-मुद्रा के दर्शन से प्रसन्न हुआ। विधिवत् वंदन करके उनसे पूछा कि:--
भगवन् ! आत्म-शान्ति का स्वरूप क्या है ? और उसकी अनुभूति किस तरह हो सकती है ? एवं स्वभाव तथा परभाव का रहस्य क्या है ?-ये प्रश्न मुझे बेर-बेर उठते हैं, पर उनका ठीक समाधान मैं अब तक कहीं से भी नहीं पा सका। कृपया आप मुझे इन प्रश्नों का सरल भाषा में समाधान कराईये ।
सन्त आनन्दघन-जिसके हृदय में ऐसे पारमार्थिक प्रश्नों को उठने का अवकाश मिलता है, वह निकट भव्य का लक्षण है अतः तू धन्य है ! क्योंकि संसारीप्राणी प्रायः शरीर, संसार और भोगों के सम्बन्ध में ही दिन-रात चिन्तन किया करते हैं, यावत् उन्हीं के हृदय में अपने आत्म-कल्याण विषयक ऐसे प्रश्नों को उठने का मौका ही नहीं मिलता। मेरे हृदय में तो बचपन से ही ऐसे प्रश्न उठा करते थे,
और समाधान के लिये मैं दिन-रात छटपटाता था। दूसरे किसी भी कार्य में मुझे रूचि न होने के कारण ग्राम्यवासी लोग मुझे इस उपनाम 'यति' से ही पुकारा करते थे।
इस शरीर की जन्मभूमि में शान्तिनाथ-भगवान का भी जिनालय था। वहाँ मैं नित्य नियमित रूप से दर्शन-पूजन करने जाता था, और रोज भगवान से प्रार्थना करता था कि हे भगवान ! शान्ति का स्वरूप क्या है ? और वह मैं कैसे जान सकूँ ? शान्ति का कारण स्वभाव-निष्ठा और अशान्ति का कारण परभाव-निष्ठा जो बताई
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org