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________________ जाती है उन स्वभाव-परभाव को भी मैं कैसे पहचान सकूँ ? मन में धैर्य धारण करके मैंने कई रोज तक इन्हीं प्रश्नों की रट लगा रखो। मुझ विश्वास था कि भगवान मेरा समाधान अवश्य करेंगे। एक दिन पूजन के पश्चात् मन्दिरजी में मैं खासी देर तक बैठा रहा। सभी लोगों के चले जाने पर प्रेम-विह्वल दशा में गद्गद् होकर मैं प्रभु को उपालम्भ देने लगा कि "हे नाथ ! एक गाम-मात्र का ठाकुर भी अपनो शक्ति के अनुसार दुखियों के दुख दूर करने की उदारता दिखलाता है, जबकि आप तो तीनों ही भुवनों के ठाकुर-त्रिभुवनस्वामी हैं, तो फिर हे जिनेश्वर ! आप के दरबार में मुझ जसे पामर की एक छोटी सी अरजी की भी सुनाई क्यों नहीं होती ? और आप का नाम भी शान्तिनाथ जग-मशहूर है, तो फिर मेरी अशान्ति क्यों नहीं मिटाते ? मैं रोते-रोते जब बेहोश हो गया तब मेरे घट में प्रकाश हुआ और यकायक हृदय प्रदेश में भगवान की साकार मूति प्रकट हो गई। प्रभ ने स्मित-वदन से जो कुछ कहा उसे मैंने एकाग्रता के साथ सुना। मेरे प्रश्नों का समाधान मिल जाने पर मैं होश में आकर नाच उठा। घर जाकर पारिवारिक-मण्डली को समझा-बुझा मैंने क्षमा आदि दश विध यति-धर्म की दीक्षा लेली और सचमुच यति बन गया। गुरुदेव ने भी मेरे अन्तरानन्द की छाया को देख कर मेरा नाम भी लाभानन्द जाहिर किया। भगवान शान्तिनाथ को साकारमूति के द्वारा मुझे जो प्रत्युत्तर मिला था, वही तुझे मैं सुना दूं, जिससे तेरे प्रश्नों का भी स्वतः समाधान हो जाय। ३. प्रभु के मुखारविन्द से मुझे सुनने में आया कि-बेटे ! जबतक तू मुझ से छेटे निकल गया था तब तक ही तुझे अशान्ति का सामना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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