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विधि प्रतिषेध करि आतमा, पदारथ अविरोध रे। ग्रहण विधि महाजने परिग्रहयो, इस्यो आगमे बोध रे॥ शांति० ॥७॥
दुष्ट जन संगति परिहरी, भजे सुगुरु संतान रे। जोग सामर्थ चित भावजे, धरै मुगति निदान रे ॥ शांति० ॥८॥
मान अपमान चित सम गिणे, सम गिणे कनक पाखाण रे । वंदक निन्दक सम गिणे, इस्यो होय तू जाण रे॥ शांति० ॥९॥
सर्व जग जन्तु नै सम गिणे, गिणे त्रिण मणि भाव रे । मुगति संसार बेहु सम धरै, मुणे भव-जलनिधि नाव रे ॥शांति०॥१०॥
आपणो आतम भावजे, एक चेतना धार रे। अवर सवि साथ संजोगथी, ए निज परिकर सार रे॥शांति०॥११॥
प्रभु मुख थी इम सांभली, कहै आतमराम रे। थाहरै दरिसणे निस्तरयो, मुझ सीधा सवि काम रे ॥ शांति० ॥१२॥
अहो ! अहो ! हूँ मुझने कहूँ, नमो मुझ नमो मुझ रे। अमित फल दान दातारनी, जेहने भेंट थई तुझ रे ॥ शांति० ॥१३॥
शान्ति सरूप संखेपथी, कह्यो निज पर रूप रे। आगम मांहि विस्तर घणो, कह्यो शान्ति जिन भूप रे ॥ शांति० ॥१४॥
शान्ति सरूप इम भावसे, धरि शुद्ध प्रणिधान रे। 'आनन्दघन' पद पामसे, ते लहसे बहुमान रे॥ शांति० ॥१५॥
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