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________________ है उन जनकों को। कि जिन्हें ऐसे ज्ञानियों के पूज्य पिता बनने का सौभाग्य संप्राप्त हुआ, पिता हो क्या ? वे पितृ-कुल भी धन्य हैं कि जिन कुलों ने विश्व के लिये धर्म-पिता की पूर्ति की और कर रहे हैं, अतः उन सबको त्रिकाल नमस्कार है। ८. अंत में स्वरूप-जिज्ञासु, अपने हृदयस्थ भगवान के साकारस्वरूप के प्रति अत्यन्त विनयान्वित हो कर प्रार्थना करता है कि : भगवान आनन्दघन ! आपकी आनन्दघन के नाम से जो विश्व. व्यापक प्रसिद्धी है वह सार्थक है, क्योंकि आपके केवल-चरण-कमलों के मकरन्द-पान मात्र से भी मेरा यह मन-भ्रमर, अत्यन्त तृप्त, आनंदित और पवित्र बन गया, फलतः ऐसा ही स्थायी आनंद चाहता हुआ यह प्रार्थना करता है कि हे कृपालो! बस, अब तो आपके पावन चरणकमलों के निकट ही मेरा स्थायो निवास हो। भगवन् ! दास की यह छोटी सी प्रार्थना ध्यान में लेकर कृपया आप अपनी सेवा में मुझे स्थायी रहने की आज्ञा प्रदान कीजिये, अन्यथा इस दास का जीना असम्भव हो जायगा। स्वरूपनिष्ठ सन्त आनंदघनजी ने अपनी ज्ञान दृष्टि से जिज्ञासु के उक्त सारे स्फुरण को अपने चैतन्य प्रकाश में प्रत्यक्ष देखा और इस सारी घटना के सार को पद्य के रुप में पत्रारूढ कर लिया। ११० ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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