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________________ क्या ? इस दुषम काल से दुर्भाग्य से केवल सूरदासों से ही सूरदासों की कतारें ढकेली जा रही हैं, क्योंकि मार्गदर्शक भी अन्तर्दृष्टि के न खुलने के कारण अन्धे हैं और उनका अनुयायी वर्ग भी अन्धा—यह कंसी विचित्रता ! धन्य है मुझे कि सद्गुरु कृपा से इस दुषम काल में भी यह चैतन्य खजाना मेरे हाथ लग गया, जिसकी कि मुझे संभावना ही नहीं थी। यदि सद्गुरु नहीं मिलते तो मैं भी उस अन्ध कतार में ही मारा-मारा फिरता रहता। धन्य है उन जिनेश्वरों को ! कि जिन्होंने अथक परि. श्रम के द्वारा धर्म-धन से भरे इस चैतन्य खजाने को खोजने का मार्ग प्रगट किया और मुमुक्षुओं को बताया। धन्य है उन आत्मज्ञ सत्पुरुषों को कि जिन्होंने जिनेश्वरों के इस स्वानुभूति प्रधान वीतराग मार्ग का अनुसरण करके स्व-पर कल्याण किया और कर रहे हैं। धन्य है मेरे इन आनन्दघन भगवान को ! कि जिन्होंने अपना चरण-शरण प्रदान करके मुझे अगम खज़ाना बख्शा कर उपकृत किया । अहो सत्पुरुषों की अनन्त करुणा ! ७. धन्य है उस धरती को ! कि जिस धरती ने ऐसे ज्ञानियों की पदधूलि से अपने को पावन कर लिया, एवं उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा ज्ञान और निर्वाण आदि के द्वारा वह तीर्थभूमि बन गई। धरती के वे ग्राम-नगर वन-पर्वत त्रिकाल वन्दनीय हैं । धन्य है उन पवित्र दिवसों को ! कि जिन दिनों ज्ञानियों का धरती पर अवतरण आदि हुआ, दिन ही क्या ? वे घड़ी-पल आदि काल भी धन्य-धन्य है ! धन्य है उन रत्नकुक्षी-जनेताओं को ! कि जिन्होंने ऐसे पुरुषरत्नों को जन्म देकर विश्व-सेवा में अपित किया, और आप भी विश्वपूज्या बनीं। मातायें ही क्या ? वे मातृ-वंश भी धन्य हैं ! जिन वंशों में ऐसे अनमोल रत्नों को उत्पन्न करने वाली रत्नकुक्षियाँ जनमीं। धन्य [ १०९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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