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आपका योग-बल ! अहो आपका ज्ञान ! अहो आपका संयम ! अहो आपका तप! धन्य भाग्य मेरे ! कि मुझे आप जैसे साक्षात् ज्ञान-मूर्ति का सुयोग मिला, पर दयालु ! आप मुझे अब विछोह मत दीजियेगा।
तब आकाशवाणी हुई कि-हे अन्तरात्मा ! विश्व में सबसे बड़ा बन्धन यही प्रीति बन्धन है। इसी के आधार पर ही यह भव-चक्र चल रहा है, जहाँ आत्मा को क्षण.भर भी आराम नहीं है, अतः प्रोति बंधन जोड़ने योग्य नहीं, तोड़ने योग्य है। जिस प्रकार दूध, दही को खटाई से तो जमता हैं पर काँजी की खटाई से फट जाता है, उसी प्रकार प्रोति भी, रागी के साथ करने पर जमती है और वीतरागो का साथ करने पर फट जाती है। प्रीति के जमने पर भव-भ्रमण बढ़ता है और फटने पर भव-भ्रमण मिटता है, अतः यदि तुझे भव.भ्रमण से छूटना हो तो प्रीति को जमाने की चिन्ता मत कर, किन्तु फाड़ने के पुरुषार्थ में लगा रह, अर्थात् तेरे प्रेम प्रवाह को अखण्ड धारा से वीतराग चरणों के प्रति सतत बहाये जा-इसे सुनकर जिज्ञासु निर्विकल्प हो गया।
६. स्वरूप जिज्ञासु को अतरंग में लहराती हुई आनन्द की गंगा में गोते लगाते पुनः स्फुरण हुआ किः
अहो ! यदि अन्तदृष्टि से घट में देखा जाय तो यह परम-निधान मुख के ही सामने प्रकट है, बाहर नहीं ; पर आश्चर्य है कि इसे उल्लांघ कर विश्व के प्राणी इसे बाहर ही यत्र-तत्र ढूंढ़ रहे हैं। भोगियों की कथा तो दूर रही ; त्यागी-तपस्वी, साधु, योगीजनों का भी यही हाल है और इसीलिए वे व्याख्यान-बाजी से भोले लोगों को भरमाते हैं कि 'इस काल में आत्मा का प्रत्यक्ष-दर्शन नहीं हो सकता पर चरमचक्षु से आत्म दर्शन हो भी कैसे ? विश्व को प्रत्यक्ष बतलाने वाली जगदीश की ज्योति को प्रकटाये बिना ही केवल चर्म चक्षु से आत्मा को देखना तो सूरदासों के देखने तुल्य निरर्थक हैं, पर करें १०८ ]
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