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कर दिया। तुम्हें यदि यह ठीक जचे तो इस गुरुगम के अनुसार अपनी साधना का मेल बैठा लेना, अन्यथा कहीं अन्यत्र गुरुगम-योग की खोज करना, पर आत्म कल्याण में जरा-सा भी प्रमाद मत करना, क्योंकि आयुष्य का कोई ठिकाना नहीं है।
५. सन्त आनन्दघनजी के इस बोधामृत का परम आदर और उल्लास पूर्वक पान करते करते स्वरूप जिज्ञासु की चेतना अन्तर्मुख उतरते-उतरते जब बाह्यज्ञान शून्य अन्तरंग में स्थिर हो गई, तब बाबा भी चुप होकर स्वरूपस्थ हो गये। उस दशा में जिज्ञासु के हृदय के उपर का परदा हटा और उसका चैतन्य-खजाना खुल गया। खजाने के खुलते ही उसने अपने हृदय-प्रदेश में चतन्य प्रकाश द्वारा वीतराग धर्म-मूर्ति जिनेन्द्रदेव के रूप में ही सन्त-छवि को साक्षात् देखा। फलतः अन्तरंग की निस्तरंग दशा में उसे एकाएक स्फुरणा हुई कि
हे परम कृपालु ! आप तो साक्षात् राग, द्वेष और मोह आदि बन्धनों से परिमुक्त परम वीतराग-मूत्ति हैं ; जबकि मैं प्रकट राग, द्वेष, और मोह आदि के फन्द में फँसा हुआ रागी-प्राणी हूँ अतः आपके साथ की हुई मेरी प्रीति का निर्वाह कैसे होगा ? क्योंकि एक पक्षीय प्रीति निभ नहीं सकती, वह तो उभय पक्षीय एक सी प्रकृति वालों के मिलन-काल में ही निभ सकती है-ऐसा जगत के प्राणी मात्र में देखा गया है। ____ चाहे जो हो पर हे हृदय-रमण ! आज से आपको छोड़ और किसी के भी लिये इस हृदय में स्थान नहीं है। चाहे आप ! इस दास को अपना लें या ठुकरा दें, पर यह दास तो आपका ही हो चुका। आपकी कृपा से ही मैंने यह परम निधान पाया। आपने ही मेरा अनादि कालीन दारिद्रय दूर कर दिया। अहो ! आपने मुझ जैसे अंधे को आँख बख्शाई। अहो आपकी निष्कारण करुणा ! अहो आपका सत्समागम ! अहो आपकी वीतराग छवि ! अहो
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