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आश्रय के विषय में भी एक बात ध्यान रखने योग्य है-मुमुक्षु के लिये परोक्ष सर्वज्ञ और प्रत्यक्ष आत्मज्ञ के आश्रय में उतना ही अन्तर है जितना कि प्यासे के लिये दूरवर्ती परोक्ष क्षीर समुद्र और निकटवर्ती प्रत्यक्ष मीठे जल से भरा एक कलशा। एवं सद्गुरु और असद्गुरु के आश्रय में भी उतना ही अन्तर है जितना कि मीठा और खारा जलाशय । क्षीर समुद्र के परोक्ष मीठे जल की आशा में तथा प्रत्यक्ष नमकीन जलपान से प्यासे का प्राणान्त हो सकता है, जबकि प्रत्यक्ष छोटे-से कलशे के मीठे जलपान से प्यासे को जीवन दान मिलता है। प्रत्यक्ष ज्ञानी के अभाव वश परोक्ष ज्ञानी के आश्रय में ही प्राणों की बाजी लगा देना अच्छा है, क्योंकि प्राणान्त बाद प्रत्यक्षज्ञानी का आश्रय अवश्य मिलता है, जहाँ कि भवान्त कर सकें किन्तु भव-भ्रमण बढता नहीं है ; जबकि प्रत्यक्ष असद्गुरु के आश्रय में, चाहे वह लवण-समुद्रवत् अथाह विद्वान हो, परन्तु उसके नमकीन जलवत् बोध पान से केवल भोग तृष्णा ही बढ़ती है, फलतः भव-भ्रमण भी बढ़ता है, कम नहीं होता।
सर्वज्ञ किंवा आत्मज्ञ के प्रत्यक्ष-बोध को गुरुगम कहते हैं। उन्हें आत्मा हाजराहजूर है अतः उनके अनुभव-प्रवचन में आत्मसाक्षात्कार कराने की भी क्षमता है ; पर जिनका परम निधान आत्मा ही मिथ्यात्व भूमि में गड़ा हुआ है उनके प्रवचन में वैसी क्षमता नहीं होती इसीलिये वे खुद भी बेचारे अपने बाप-दादों की बही के आधार पर ही उस परम निधान को क्रिया और साहित्य-वन में बाहर ढूंढ रहे हैं। जहाँ दुकानदारों की भी ऐसी दशा है वहाँ भला! उनकी दुकान में से हमें मुंहमांगा दाम देने पर भी आत्मसाक्षात्कार का गुरुगम कैसे मिल सकेगा?
भैया ! हमें गुरु तो नहीं बनना है, पर तुम्हारी योग्यता को देखकर ज्ञानियों की कृपा से जो कुछ जाना, उसमें से थोड़ा सा इशारा १०६ ]
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