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मार्गोचित शुद्ध नहीं है - वह तो मिथ्या चारित्र है । उसी से ही संसार पनप रहा है; अतः यदि सद्गुरु के शरण को खोज रहे हो तो सर्व प्रथम सूत्र की कसौटी से कस कर गुरु की परीक्षा करो। केवल गड़रिया- प्रवाह में मत बहो ।
७. सुज्ञ ! चारित्र - विषयक यह ज्ञानियों के सदुपदेश का संक्षिप्त सार है। हंस- चञ्चु न्यायवत् जो भी आत्मार्थी मनुष्य इस बोधामृत के पान से अपने चित्त को प्रतिदिन सतत प्रभावित रखते हुए शुद्ध चारित्र मार्ग में समुद्यत रहेंगे, उन महामानवों को अधिक से अधिक केवल सवा साल में ही अनुत्तर -विमान- वासी देवों के सुख को लांघ कर अनुपम सिद्ध-सुख का साक्षात् अनुभव होगा- इसमें जरा भी सन्देह नहीं । दिव्य ध्वनि, दिव्य दर्शन, दिव्य सुगन्ध, दिव्य रस और दिव्य-स्पर्श तो उन्हें आत्म-साक्षात्कार के पूर्व ही अनुभव पथ में आजायेंगे, पर उनमें अटकना मुमुक्षुओं को उचित नहीं । काल दोष वश यदि स्वरूपाचरण में पुरुषार्थ - मन्दता रहे, तो कोई आश्चर्य नहीं पर इस अभ्यास के प्रताप से यदि देवायु बँध गया तो इस देह - पर्याय के पश्चात् इन्द्र - अहमिन्द्र पद पर विश्राम लेकर वहाँ से अथवा सीधा तीर्थङ्कर भूमि में पुनः महामानव बन कर सुदीर्घ काल तक दिव्यसुखों का अनुभव करके वे पुनः चारित्र श्रेणी पर आरूढ़ हो जायेगें । और घाती - अघाती को समूल घात द्वारा उसी पर्याय में भवान्त करके वे पुष्ट ज्ञानानन्द-स्वरुप अखण्ड स्थिर सिद्ध साम्राज्य को पाकर कृत कृत्य हो जायेगें - यह सुनिश्चित है ।
प्रचारक - अहो ! आपने अपना अनन्य शरण- दान और अमुल्य बोधामृत पान कराकर हम पामरों पर वह उपकार किया है जिसका कि बदला ही चुकाया जा न सके। हमें विश्वास हो चुका है कि आपकी कृपा से अब हमें मोक्ष हथेली में है, क्योंकि हमारे लिये तो आप ही प्रत्यक्ष मोक्ष- स्वरुप हैं । आपके मिलने पर हमें तो सब कुछ मिल गया ।
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