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क्षमाश्रमणों के लिये जिनागम में बतायी हुई सव-विरति पद पर पहुँचाने वाली यह सर्व-विरति की भूमिका-रूप श्रमणोपासकीय ग्यारहप्रतिमा श्रेणी को विच्छेद बता कर आत्म-साक्षात्कार और आत्म लक्ष के बिना ही स्वयं श्रमण-पद पर आरुढ़ हो जाना एवं तद्वत् दूसरों को भी आरूढ़ करना-यही हुंडा-अवसर्पिणी काल का असंयती-पूजा नामक अच्छेरा-आश्चर्य है, क्योंकि सीढ़ियों को पार किये बिना ही उपरितन मंजिल पर चढ़ जाने तुल्य ही यह कोरा दुस्साहस है। सर्वविरति की पूर्व-भूमिका का ही यदि वर्तमान में विच्छेद है, तो भला ! सर्व-विरति पद का अविच्छेद कैसे सिद्ध हो सकता है ? पर कलिकाल के अन्धाधुन्ध साम्राज्य में जितनी भी उत्सूत्र-प्ररूपणा हो उतनी ही कम है।
अचेलक शब्द का अर्थ तो (न+चेल-अचेलः, अचेल एवं अचेलक ) वस्त्र का न होना ही सिद्ध है—यह तो सामान्य शिक्षित भी जानता है, फिर भी उस असली अर्थ को मरोड़ कर उसे जीर्ण, मानोपेत और स्वेत-वस्त्र के रूप में बदल देना, किस घर का न्याय है ? यदि अचेलक रहने की क्षमता न हो तो अपनी शक्ति अनुसार निचली भूमिकाओं पर रहने में क्या आपत्ति है ? उत्सूत्र प्ररूपणा और आचरणा द्वारा व्यर्थ ही भव-भ्रमण बढ़ाने में क्या लाभ है ? जिनागम में तो प्रकट-रूप से घोषित किया गया है कि
_ विश्व में उत्सूत्र-भाषण तुल्य दूसरा कोई महापाप नहीं है और जिन-कथित वीतराग-धर्म तुल्य दूसरा कोई पारमार्थिक सर्वोत्कृष्ट धर्म नहीं है।' जिनागमसूत्रों में बताया गया है कि मोक्ष, क्रियमाणकर्मों का संवर और कृत-कर्मों की निर्जरा पूर्वक ही हो सकता है, अतः रत्नत्रय रूप मोक्ष-मार्ग भी संवर-निर्जरात्मक अबन्ध-आत्म-परिणाम स्वरूप ही है फलतः सम्यक् चारित्र क्रिया भी संवर-क्रिया-स्वरूप प्रसिद्ध है। सूत्रानुसार यह सम्यक् क्रिया जो भी उत्तम महात्मा करते हों, केवल उन्हीं का चारित्र ही शुद्ध समझो। शुभाशुभ उपयोग से जो सतत आश्रव क्रिया में ही रम रहे हों उन का चारित्र मोक्ष
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