SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तो पराकाष्टा पर पहुँच जाती हैं अतः वह आरम्भ-परिग्रह की अनुमति देने में ही अपने आप को असमर्थ पाता है जब कि पारिवारिक, मित्र आदि सलाह के लिये बार-बार तंग करते हैं तब उसे गृहवास भी अखरता है फलतः वह साधक आरम्भ-परिग्रह की अनुमति का भी परित्याग (१०) कर लेता है। फिर वह गृहवास से निवृत होकर सद्गुरू-चरणों में किंवा उनका सहयोग न मिलने पर पौषध-शाला, उपवन आदि विविक्त स्थानों में निवास करता है। उद्दिष्ट-आहारत्याग न होने से आमन्त्रण मिलने पर गृहस्थ के घर एक वार भोजन कर लेता है । अनुमति-वृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म होती है अतः दश माह तक के निरतिचार अभ्यास से उस पर सम्पूर्ण विजय पाकर श्रमण-तुल्य - प्रतिमा (११) अपनाता है। अब उद्दिष्ट खानपान का भी परित्याग करके वह ठाम-चौविहार भिक्षान-भोजी, एक वस्त्र और एक पात्र धारी साढ़े पांच माह तक शीत आदि परिषह सह कर फिर केवल कटिवस्त्र-कोपीन धारण करता है। श्रमण तुल्य इस दशा में फिर साढे पाँच माह तक अचेलकत्व और पाणि-पात्र की क्षमता प्राप्त करता हुआ प्रवृत्ति-चक्र में सर्वत्र आत्मलक्ष की अखण्डता पर सर्वथा अधिकार पा लेता है। इस तरह साधक साढ़े पांच साल तक के अदम्य साहस और अथक पुरुषार्थ से लक्ष की सर्वथा आत्माकार विरति की सिद्धि करके सद्गुरु कृपा से सर्व-विरतिधर सच्चा साधु बनता है। सवं-विरति दशा में वह प्रधानतः सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-ज्ञानधारा को स्वरूप-गुप्त करके अखण्ड आत्मरमणता द्वारा अपने आत्मवैभव से महा प्रतापवान और अप्रमत्त रह कर शेष धाती-कम-मल का परिशोधन करता रहता है ; तथा गौणतः आत्म-लक्ष की अखण्डता पूर्वक समितिवान रह कर विश्व हित करता है। यह जैन-साधु, साधुदशा के क्षमा आदि दशविध यतिधर्म और अचेलक आदि दशविध यति-आचार का निरतिचार प्रतिपालन करता हुआ स्व-पर निस्तारक होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy