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इस अभ्यास से चार प्रहर तक एक ही आसन में बैठने की योग्यता आ जाने पर पर्व तिथियों में पौषध के साथ रात्रिभर कायोत्सर्ग-प्रतिमा (५) पूर्वक आत्म लक्ष की आराधना करता है। यहाँ साधक के रात्रिभर भजन की ही विशेषता है, रात्रि-भोजन त्याग की नहीं क्योंकि वह त्याग तो व्रत प्रतिमा में ही हो चुका है। और दिवा-मैथुन तो मानवता से भी बाहर है अतः उसका साधकीय जीवन में प्रथमतः निषेध ही है। पांच माह तक पाँचमी प्रतिमा को निरतिचार आराधना द्वारा बढ़े हुये ब्रह्मानन्द से विषयानन्द स्वतः छूट जाता है । अतः साधक आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिमा (६) अंगीकार करता है। छह माह तक निरतिचार ब्रह्मचर्य पूर्वक पूर्वोक्त आराधना से छकी-सी आत्मदशा में उस साधक का हृदय उत्तरोत्तर इतना कोमल बन जाता है कि वह आगे की प्रतिमाओं में पूर्वोक्त साधन-क्रम द्वारा ही उत्तरोत्तर निवृत्ति बढ़ाकर निम्न प्रकार को अखण्ड आत्म लक्ष की बाधक शेष वृत्तियों को परिक्षीण करता हुआ स्वरूपानुसन्धान की विशेषता एवं दृढ़ता सिद्ध करता जाता है ब्रह्मचर्य-निष्ठा के कारण उसे घट-घट में ब्रह्मस्वरूप विशेषतः स्पष्ट दिखाई देता है अतः उसे सचित्त खान-पान में बड़ा आघात पहुँचता है, फलतः वह आजोवन सचित्त-आहार त्याग प्रतिमा (७) अंगीकार कर लेता है। सात माह तक इस प्रतिज्ञा के निरतिचार प्रतिपालन से बढ़ी हुई कोमलता वश वह अपने हाथों आरम्भ कर नहीं सकता अतः वह स्वयं-आरम्भ-वर्जन-प्रतिमा (८) धारण करके उसके निरतिचार प्रयोग द्वारा आठ माह में उस वृत्ति का अन्त कर लेता है। अब दूसरों के हाथों आरम्भ कराने की भी वृत्ति नहीं उठती अतः परिग्रह-जाल भी अखरता है फलतः वह आरम्भ कराने का एवं परिमित संयमोपकरण के अतिरिक्त अतिरिक्त समस्त परिग्रह का आजीवन सर्वथा परित्याग कर देता है। नव माह तक इस नवमी प्रतिमा के प्रतिपालन से उसके हृदय की कोमलता
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