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निरर्थक है एवं अज्ञानी क्रिया जड़ों की स्वरूपानुसन्धान विहीन करोतिक्रिया भी निरर्थक है-इस तथ्य को ध्यान में लो।
६. साधु जीवन की सार्थकता आत्म-रमणता-रूप शुद्ध चारित्र पर ही निर्भर है। लक्ष को सर्वथा आत्माकार विरति पूर्वक ही शुद्ध चारित्र की आराधना हो सकती है। आत्म लक्ष की अखण्ड-धारा प्रगटाने के लिये दिगम्बर साहित्य में ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं का विधान और तदनुसार आराधन-क्रम का प्रचार उस सम्प्रदाय में तो प्रचलित है ही ; पर श्वेताम्बर साहित्य उपासकदशांग आदि सूत्रों में भी श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं का व्यवस्थित आराधन-क्रम बताया गया है, जिस क्रम में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के प्रतिपालन पूर्वक ही उत्तरोत्तर प्रतिमाओं में प्रवेश होता है। तदनुसार सर्वप्रथम एक मास तक योग-उपधान विधि से परमेष्ठी-मंत्र आदि की सिद्धि द्वारा आत्म-साक्षात्कार-रूप दर्शन-प्रतिमा (१) की आराधना की जाती है; क्योंकि आत्म-दर्शन के बिना आत्म-लक्ष जम नहीं सकता। आत्मसाक्षात्कार तक का अनुभव-क्रम श्री सुविधिनाथ-स्तवन में पूजन रहस्य द्वारा संक्षेपत: बता दिया है । आत्म-द्रष्टा को स्वरूपानुसन्धान के लिये समाहित-चित्त और निवृति काल अनिवार्य है अतः पाँच अणुव्रत, तीन अणुव्रत और चार शिक्षाव्रत-रूप व्रत-प्रतिमा (२) की आराधना भी अनिवार्य हो जाती है। दो माह तक के अभ्यास से निरतिचार व्रतपालन सिद्ध हो जाने पर आत्म लक्ष से साधक को जो आत्मतुष्टी मिलती है उससे उसे अधिकाधिक निवृत्ति आवश्यक हो जाती है अतः वह त्रि-सन्ध्या-सामायिक प्रतिमा (३) को नित्य, नियमित और निरतिचार आराधना करता है। तीन माह तक के अभ्यास से जबकि निवृत्ति-काल में अहोरात्र स्वरूपानुसन्धान टिकाने की योग्यता सध जाय तब अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या- इन पर्व दिवसों में उपवास-पूर्वक अहोरात्र आत्मलक्ष के प्रकृष्ट औषध-रूप पौषधप्रतिमा (४) की निरतिचार आराधना करता है । चार माह तक के
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