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________________ अपने चैतन्य-प्रकाश को द्रष्टाकार नहीं समा पाये अतः द्रष्टा के विस्मरण पूर्वक ही अपनी दृष्टि को दृश्याकार भटका रहे हैं, वे चाहे अपने आपको सम्यक्त्वी और दूसरों को मिथ्यात्वी भले मान ल पर हैं खुद ही सरासर मिथ्यात्वी, क्योंकि उन्हें सम्यक्-दशा ही नहीं है। वास्तव में मान्यता का कोई फल नहीं है पर दशा का फल है। सुदेव, सुगुरु और सुधर्म तो सम्यक्-श्रद्धा के प्रयोग में निमित्त-मात्र आदर्श हैं। साधकीय जीवन में उनका निश्चय और आश्रय ग्रहण करके यदि उन्हें निमित्त-कारणता का मौका दिया जाय तो अपनी उपादान-शक्ति को व्यक्त होने की भी कारणता सघ जाय, फलतः सम्यक्-श्रद्धा-प्रयोग-रूप कर्य सिद्ध हो जाय । सम्यक्-श्रद्धा-प्रयोग हस्तगत हो जाने पर विश्वप्रपंच में से जो भी देखना हो वह सब चैतन्य-दर्पण में स्वतः ही झलकता है, बहिर्मुक देखने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी लिये जिनवाणी में बताया गया है कि “एगं जांणई से सत्वं जाणइ'' अर्थात् जो एक को जानता है वह सब को जानता है-यह कोरा युक्तिवाद नहीं अपितु अनुभव-इशारा है, अतः मिथ्या-श्रद्धा-प्रयोग द्वारा आत्म-शक्ति का व्यर्थ ही अपव्यय करना मुमुक्षुओं के लिये उचित ही नहीं है । प्रियजन ! यदि आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हों तो शुद्ध-श्रद्धान अर्थात् श्रद्धा के सम्यक् प्रयोग को अपनाओ। इसके बिना की जाने वाली समस्त धार्मिक-क्रियायें क्षार-भूमि के उपर किये हुये गोबर मिट्टी के लिम्पन तुल्य अर्थ-हीन है, क्योंकि लक्ष्य-शून्य क्रियाओं से लक्ष-वेधतमोग्रन्थि का भेदन और आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता-इस तथ्य को ठीक समझो; और असद्गुरु की निश्रा में क्रियान्ध बन कर 'अप्पाणं वोसिरामि' अर्थात् समूची आत्मा को ही मत विसर्जन करो किन्तु आत्मा में से देहात्म-बुद्धि का परित्याग करो। जिनवाणी में स्पष्टरूप से बताया गया है कि "हयं नाणं किया होणं, हया अन्नाणिणो किया।" अर्थात् ज्ञाप्ति-क्रिया विहीन शुष्क-ज्ञानियों का ज्ञान भी [ ९१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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