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सिद्ध केवली सभी परमात्म गच्छोय हैं, वे परमगुरु मुमुक्षुओं के आराध्य सुदेव हैं। प्रतीति, लक्ष किंवा अनुभूति-धारा से जिनकी दृष्टि द्रष्टा में रम रही है किन्तु अभिन्न नहीं हो पायी वे चौथे गुणस्थान से लगाकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त की आत्मदशा वाले सभी अन्तरात्मगच्छीय हैं, जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष-मार्गारूढ़ के रूप में इसी गच्छ की ही सराहना को है। इसमें छठे से बारहवें गुणस्थान-स्थित सभी मध्यम गुरु सुगुरु के रूप में मुमुक्षुओं के उपासनीय हैं। उनके अभाव में चौथे-पाँचवे गुणस्थान-स्थित जघन्य-गुरु भी मुमुक्षुओं की अन्तर्दृष्टि खोलने में समर्थ हैं। ये अन्तष्टि वाले ही सच्चे जैन हैं। जिनकी दृष्टि द्रष्टा को देखने में समर्थ ही नहीं है अतः केवल दृश्याकार में ही भटक रही है वे सभी बहिरात्म-गच्छोय हैं, फिर चाहे वे दिगम्बर हो किंवा श्वेताम्बर, पर उनका तीर्थङ्करों के मार्ग में प्रवेश तक नहीं है अतः उनका परिचय भो मुमुक्षुओं के लिये हेय है।
४. विश्व में कुगुरुओं का संग ही सबसे बड़ा असत्संग है, क्योंकि वहाँ परमार्थ के नाम पर ठगाई होती है। अन्तदृष्टि के न खुलने पर भी जो गुरु-पद अंगीकार करके शिष्यों के मार्ग-दर्शक बनते हैं वे कुगुरु हैं। वे मार्ग का जो भी दिग्दर्शन कराते हैं-वह सब कोरा कल्पनाजाल है, क्योंकि उन्हें मार्ग का साक्षात् अनुभव नहीं है। अनुभवशून्य कथन तो अन्य-नय-निरपेक्ष केवल एकान्तिक होता है। जहाँ दूसरे नयों का अपलाप है वहाँ मताग्रह का होना स्वाभाविक है। जहाँ मताग्रह है वहाँ झगड़ालु-वृत्ति है। जहाँ झगड़ालु-वृत्ति है वहाँ रागद्वेष-अज्ञान-रूप त्रिदोष-सन्निपात है। जहाँ सन्निपात दशा है वहीं सद्विचार और सदाचार दोनों व्यापार ठीक नहीं हो सकते—यह बात न्याय-सिद्ध है अतः ज्ञानियों ने उक्त व्यापार को मिथ्या-व्यवहार कहा है।
विश्व में जीवन का सार सत्संग है। सद्गुरु का संग सत्संग कहलाता है। जिनकी अन्तर्दृष्टि अखण्ड आत्म-लक्ष पूर्वक है वे ही
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