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धरा ध्र जाते हुये इन ज्ञात-पुत्रों को जरा-सी भी शर्म नहीं आती। मत-ममत्वियों के मुख में तो तत्त्व की बातें शोभा ही नहीं देती क्योंकि मत-ममत्व और तत्त्व का परस्पर उतना ही विसंवाद है जितना कि वृक्ष के कोटर में अग्नि और फिर भी उसकी नवपल्लविता ! साधुस्वांग, तप, त्याग, व्याख्यान-वाणी-ये तो केवल अपनी पेट-भराई
और मान-बड़ाई आदि कार्य-सिद्धि के लिये ही इन लोगों ने अपना सरल तरीका बना रक्खा है और कुछ नहीं। हाय रे ! इस कलिकाल के अज्ञानानंध राज्य में मोह-महाराजा ने योगियों को नहीं छोड़ा-यह तो ठीक, पर योगियों को भी नख-शिख लपट-झपट लिया-यह कितने आश्चर्य की बात है ? इसीलिए तो ये बेचारे धर्म के नाम पर दुकानदारी चलाते हुये भी नहीं डरते। बारहवीं शताब्दी के कितनेक मुनियों को हालत का दिगदर्शन कराते हुये आत्मज्ञ आचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी लिखते हैं कि
"रद्ध तत्थं कुणंता, रद्ध तं सव्वहा न पेच्छंति । लग्गति सावयागं, मग्गे भक्खत्थिणो एगे ॥१०॥
(उपदेश कुलकम् ) कितने ही मुनि लोग शास्त्र-सिद्धान्तों के अर्थ-विवेचन को करते हुए भी अपने प्रयोजन हेतु सिद्धान्त को तो बिलकुल देखते तक नहीं हैं अर्थात् सिद्धान्त -विरुद्ध मनचाहा वर्ताव करते हैं और केवल पेट-भराई के लिये ही दिनरात श्रावकोचित (गृहस्थोचित) मार्ग में लगे रहते हैं। इस दशा से भी आधुनिक मुनि बहुत आगे बढ़ चुके हैं, क्योंकि घट में अन्धेरा होने से इन्हें श्रावकोचित देशतः भी आत्मलक्ष नहीं है।
परमार्थ-दृष्टि से यदि देखा जाय तो चेतन-सृष्टि तीन गच्छों में विभक्त है-(१) परमात्म-गच्छ (२) अन्तरात्म-गच्छ और (३) बहिरात्म-गच्छ। जिनकी दृष्टि अखण्ड और स्थायी रूप में द्रष्टा से अभिन्न हो चुकी है वे सयोगी-केवली, अयोगी केवली और
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