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बाँधना-देखो वृहत्-कल्प। अब तो इसका 'ओघे' के रूप में कैसा साज सजाया जाता है और वह कितना आगम सम्मत है—यह तो कोई विचारक ही जानते हैं।
वर्तमान में क्या स्थविर ! और क्या युवा ! सभी श्वेत वस्त्रधारी उपरोक्त चौदह उपकरणों में संख्या बढ़ा कर किस सीमा तक पहुँचे हैं ! और 'एग भत्तं च भोयग'-दशवैकालिक अर्थात् केवल एक वक्त के भोजन-नियम को ठकरा कर दिन भर में न जाने कितने वक्त खातेपीते हैं ! जिसका कोई ठिकाना ही नहीं। एक सामान्य गृहस्थ को भी मात कर दे उतना तो एक-एक साधु का समाज पर वस्त्र-पात्र आदि के पीछे प्रतिवर्ष खर्च है। केवल इन्हीं के पात्रों के लिये ही प्रतिवर्ष सैकड़ों हरे पेड़ों की बलि चढ़ाई जाती है। भ्रूण, बाल, युवा आदि भेड़ों की हत्या पूर्वक कसाईघर आदि को ऊन से बनी मँहगी कम्बल, ओघा, संथारिया एवं कथंचित् पशु चर्बी से चलने वाली यंत्रों से बनी मलमल आदि से सज-धज कर हमारे ये अहिंसा के पुजारी न जाने अहिंसा की कितनी शोभा बढ़ा रहे हैं—यह तो वे ही जानें। ___क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर ! चाहे नंग-धडंग रहें, चाहे वस्त्र भडंग !! पर आत्म साक्षात्कार का रास्ता तो प्रायः सभी भूल चुके हैं, इसीलिए ये वीतराग के सुपुत्र 'सिद्धा पन्नरस भेया'पन्द्रह भेद से सिद्धों का गान आलापते हुये भी केवल बाह्य क्रिया-काण्ड और वेष-भूषा के आग्रह वश बीस पन्थ, तारण पंथ, गुमान पन्थ तेरह पन्थ तथा खरतर, अंचल, तपा, पायचन्द, कँवला, लोंका आदि गच्छ एवं स्थानकवासी, तेरहपंथी मतभेद की आड़ में कोरे मतार्थी बन कर केवल राग, द्वेष, और अज्ञान का ही पोषण कर रहे हैं, फलतः संघशक्ति की छिन्न-भिन्नता, जैन शासन की उड्डाहना और स्व-पर के अकल को अपनी सगी आँखो देख रहे हैं, फिर भी वीतराग दर्शन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तात्त्विक बातें बना कर व्याख्यान
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