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तुच्छा समझ कर, उससे अपना मुँह मोड़ कर आपके चरण-कमलों को अपना निवास स्थान बना कर यह स्थिर हो गई।
३. दयालु ! आपकी दया से मेरा भी यह मन-भ्रमर आपके चरण कमलों के चैतन्य-गुण-रस-पान में तल्लीन होकर इतना मस्त हो गया है कि चन्द्रवत् उज्ज्वल चन्द्र न्द्र, धरणेन्द्र, शक्रेन्द्र आदि देवों के इन्द्रपद, तथा महालय, खजाने आदि अपार सामग्री युक्त वसुन्धरा के चक्रवर्ती-पद की समस्त विभूति को साक्षात् विभूति - राख तुल्य तुच्छ समझ कर उस ओर नजर उठा कर भी नहीं देखता।
४. हे परमेश्वर ! विश्व में आपकी साहिबी ही सर्वोत्कृष्ट है । आप जैसे सर्वसमर्थ स्वामी को पाने से अब कर्म-शत्रु मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकते। अहो ! आपकी उत्कृष्ट उदारता ! कि जो सेवक को ही सेव्य बना देती है। हे मनविसरामी ! मेरे मन को आप इतने प्रियतम हो चुके हैं कि इधर-उधर की नाचकूद छोड़कर यह केवल आपमें ही स्वतः स्थिर रहता है। हे आत्माधार ! आपके नामस्मरण से मुझे शरीर, संसार और भोगों का भी विस्मरण हो चुका है। मेरे हृदय में आपकी छवि की स्थापना हो जाने के बाद अब मुझे प्राणीमात्र में आप-ही-आप सर्वत्र नजर आते हैं। आपका आत्म-द्रव्य मेरे आत्म-द्रव्य को शरीर आदि से सर्वथा भिन्न बतलाता है, और आपके आत्म-स्वभाव के अवलम्बन से मेरे चिद्-विकार स्वतः क्षीण हो रहे हैं। इस तरह चौ-चारों ही प्रकार से आप मेरे आत्म-कल्याण के लिये परम आधार हैं।
५. हे स्वयं ज्योति ! पृथ्वी तल पर जैसे सूर्य के किरण-समूह चमकते ही अन्धकार का अस्तित्व स्वतः मिट जाता है, वैसे ही मेरे हृदय-प्रदेश में आपकी जाज्वल्यमान छबि के चमकते ही शरीर में आत्म-भ्रम उत्पन्न कराने वाले मिथ्यान्धकार का अस्तित्व भी स्वतः
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