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मिट गया, और अनादि काल से कलेजे को कुरेद-कुरेद कर खाने वाले संशय-कीट न जाने कहाँ लापता हो गये।
६. हे अमृत-सागर ! आपकी छबि-छटा की अद्भुत रचना का मैं क्या वर्णन करूं ? यह तो साक्षात् अमृत का ही भरा पिण्ड है। विश्व भर में ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है कि जो इसकी उपमा देने में भी उपयुक्त हो सके। आपकी इस अनुपम मूर्ति को एक टक देखती हुई मेरी दृष्टि भी सुधारस से सतत स्नान कर रही है, फिर भी इसे सन्तोष नहीं होता, क्योंकि इससे इसे अपार शान्ति मिल रही है अतः यह हटाने पर भी नहीं हटती।
७. हे जिनेन्द्र देव ! आपने असीम कृपा करके मुझे जो यह अक्षय पुष्ट आत्मानन्द को प्रदान करने वाली अपनी चरण-सेवा बख्शी है वह, जबतक मैं भव-मुक्त न हो जायूँ तब तक भवोभव में अखण्ड रूप में बख्शाते रहियेगा-बस यही इस रंक सेवक की एक छोटीसी प्रार्थना है, जिसकी स्वीकृति देकर मुझे कृतकृत्य कीजियेगा।
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