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सन्धान और चित्त की स्थिरता के बिना आत्मसाक्षात्कार कदापि नहीं हो सकता---यही निष्कर्ष है।
केवल जिनवाणी किंवा केवल-जिनमुद्रा की उपासना अपूर्ण उपासना है-सम्पूर्ण नहीं। जिनवाणी द्वारा जिनदशा का माहात्म्य समझ कर परम प्रेम और उल्लास पूर्वक जिनमुद्रा का ज्यों-ज्यों स्मरण और और ध्यान स्थिर होता है, त्यों-त्यों भक्त के हृदय-पट पर प्रभु छबि अंकित होती हुई स्थिर होती है, तब भक्त-हृदय नाच उठता है, एवं आनन्द विभोर होकर भक्त अन्तर्ध्वनि से ललकारता है कि
१. ओ हो ! धन्यभाग मेरे कि आज मेरी अन्तर्चक्षु से मैंने राग आदि रहित शुद्ध चैतन्यमूर्ति जिनेश्वर भगवान को प्रत्यक्ष देखे। अहो ! अब मेरे चतुर्गति-भ्रमण के जन्म-मरण आदि एवं मिथ्यांधकार आदि दुर्भाग्य दूर हो गये ; और अनन्त सुख आदि नव-निधान युक्त समस्त स्वरूप सम्पदा मिल चुकी, क्योंकि समस्त स्वरूप-सम्पत्ति और शक्ति सम्पन्न त्रिभुवन स्वामी ने मुझे गोद ले लिया-अपना अनन्य शरण प्रदान कर दिया। अब प्रभु की छत्र-छाया में खड़े-निवासी रंक जन वत् काम, क्रोध आदि विषय कषाय में से किसकी ताकत है कि जो मेरी अवज्ञा कर सके ? और ग्राम्य-जनोचित गरीबी भी मुझे कैसे सता सकती है।
२. भगवन् ! आपकी समवशरण आदि बाह्य अतिशय-सम्पदा का भी मैं क्या वर्णन करूँ ? कमल-निवासिनी कमला-लक्ष्मी, रागद्वेष आदि मल को उत्पन्न कराने वाली और एक स्थान में कदापि स्थिर न रहने के स्वभाव वाली हाथी के कान जैसी चपल कहलाती है, पर अहो ! उसने भी आपके कैवल्य-पद को राग आदि मल से रहित एवं स्थिर देखते ही तुरन्त अपनी समल और चपल उपाधि का परित्याग कर दिया; तथा अपने निवास स्थान 'कमल' को तुच्छाति७६ ]
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