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सर्व-साधारण उपदेश है। क्योंकि स्वरूपनिष्ठ श्री सद्गुरु-मुख से साध्य, साधन और साधकीय पात्रता के स्वरूप रहस्य को समझे बिना आत्मसाक्षात्कार की साधना में प्रवेश तक नहीं हो पाता। अध्यात्म चिन्तन के योग्य उपयोग की शुद्धता एवं सूक्ष्मता के लिए दर्शनमोह को परिक्षीण करना अनिवायं है और उसके लिये अनिवार्य है भक्ति-पथ का पथिक बनना, क्योंकि चित्त शुद्धि के लिए भक्ति-मार्ग ही प्रधानमार्ग है। ___अपनी आत्मा में ही परमात्मा का अभिन्न रूप में अनुभव करने वाले प्रत्यक्ष-सद्गुरू में अथवा उनसे परमात्मदशा के रहस्य को समझ कर उनकी आज्ञानुसार परोक्ष परमात्मा की बोध और आचरण-रूप प्रत्यक्ष-स्थापना-मति में परमात्म-भाव को स्थापन किये बिना साधक के हृदय में भक्ति-भावना की स्फूर्ति ही नहीं होती। आत्मसाक्षात्कार के हेतु साधक के लिए बीज-केवलज्ञानी की निश्रा और सम्पूर्ण-केवलज्ञानी की निश्रा दोनों एक-सी हैं अतः वैसे सद्गुरु एवं परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है ; तथा प्रत्यक्ष परमात्मा और उनकी परोक्षता में उनके बोध-शिक्षा एवं आचरण-शिक्षा की स्थापना-प्रत्यक्ष शब्दमूर्तिरूप सत्शास्त्र तथा चैतन्य-पिण्ड-मूर्ति-रूप प्रत्यक्ष जिन मुद्रा में भी कोई अन्तर नहीं है, फिर भी जो जितना अन्तर मानता है उसे आत्मसाक्षात्कार में भी उतना ही अन्तर पड़जाता है—ऐसा ज्ञानियों का अनुभव है। क्योंकि अन्तर मानने पर उनके प्रति न अटल विश्वास पैदा होता है और न परम आदर-सत्कार; भक्ति-बहुमान भी। अटल विश्वास और परम-भक्ति भाव को जगाये बिना ही कोरी सत्शास्त्रउपासना से मस्तिष्क-शुद्धि नहीं होती, तथा कोरी जिन-मुद्रा की उपासना से हृदय-शुद्धि नहीं होती। मस्तिष्क-शुद्धि के बिना सम्यक्-विचार का उदय नहीं होता और हृदय-शुद्धि के बिना सम्यक्-आचार में प्रवेश नहीं होता। सम्यक्-विचार के बिना स्वरूपानुसन्धान नहीं बनता और सम्यक्-आचार के बिना चित्त की चंचलता नहीं मिटती। स्वरूपानु
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