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१३. विमलजिन - स्तवनम्
भक्ति मार्ग की प्रधानता और रहस्य :
प्रचारक - भगवन् ! दीये दीया होता है - यह उक्ति मेरे दिमाग में बैठ गई, अतः आज से ही मैं आपकी साक्षी पूर्वक उन केवल द्रव्यलिंगी असद्गुरुओं की निश्रा का शुद्ध योग - त्रिक की त्रिविध शुद्धि से त्याग करता हूँ और सभी ज्ञानियों को साक्षी से आपकी ही अनन्य शरण लेता हूँ । कृपया आप अपने शरण में लेकर इस पामर को कृतार्थ कीजिये ।
प्रभो ! मैं बचपन में शास्त्रीय ज्ञान न होने पर भी जब तक प्रभुभक्ति करता था, तब तक मेरे हृदय में लघुता और प्रभु प्रेम बना रहता था, किन्तु शास्त्रीय ज्ञान पढ़ कर जब से मैं अध्यात्म चिन्तन की ओर झुका, तब से धीरे-धीरे मेरे हृदय में से प्रभु-भक्ति तो गौण होती गई और उल्टे शुष्कता एवं गर्व बढ़ते गये। साथ ही असद्गुरुओं की कृपा से पेट भराई और नामवरी के पीछे में बह गया । फलतः मेरी विद्या भी अविद्या का कारण बनी रही । अब मैं इस बला से कैसे
छूटू ?
सन्त आनन्दघनजी - महानुभाव ! यद्यपि अध्यात्म-चिन्तन शुक्ल ध्यान का अनन्य कारण है, पर जब तक सद्गुरु की प्रत्यक्ष निश्रा में विषय- कषायों के जय पूर्वक प्रभु भक्ति द्वारा दर्शन - मोह क्षीण न हो जाय तब तक मात्र अध्यात्म-चिन्तन से चित्त, केवल कल्पना प्रवाह में बहता रहता है पर ज्ञाननिष्ठ नहीं हो पाता, अतः चिन्तक उल्टे सन्देह, शुष्कता और गर्व आदि दोष - जाल में फँस कर स्वच्छन्द हो जाता है । सजीवन-मूर्ति की कृपा बिना उसे उस जाल से छूटना सम्भव नहीं, इसीलिये 'आणाए धम्मो' अर्थात् सद्गुरु की आज्ञानुसार चलने पर भी मोह - क्षोभ रहित धर्म हो सकता है - ऐसा जिनागमों में
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