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________________ श्री विमल जिन स्तवन ( राग-मल्हार-इडर आंबा आबली रे, इडर डाडिम दाख-ए देशी ) दुख दोहग दूरै टल्या रे, सुख सम्पत सु भेट । धोंग धणी माथे कियो रे, कुण गंजे नरखेट ॥ विमल जिन दीठा लोयणे आज,म्हारा सीझावंछित काज ॥ विमल०॥१॥ चरण कमल कमला बस रे, निरमल थिर पद देख । समल अथिर पद परिहरीरे, पंकज पामर पेख ॥ विमल० ॥२॥ मुझ मन तुझ पद-पंकजे रे, लीनो गुण मकरन्द । रंक गिणे मंदर धरा रे, इन्द्र चन्द नागिन्द ॥ विमल०॥३॥ साहब समरथ तूं धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी बालहो रे, आतम चो आधार ॥ विमल०॥४॥ दरसण दोठे जिन तणो रे, संसय रहे न वेध । दिनकर कर भर पसरतां रे, अंधकार प्रतिषेध ॥ विमल०॥५॥ अमी भरी मूरति रची रे, उपमा घटै न कोय । शांत सुधारस झीलती रे, निरखत तृपति न होय ॥ विमल० ॥६॥ एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुझ दीजिये रे, 'आनन्दधन' पद सेव ॥ विमल० ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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