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उतरना प्रमाद है अतः उस साधक को समितिकाल में प्रमत्त-सवंविरति कहते हैं।
आत्म-साक्षात्कार से उत्पन्न आत्मज्ञान द्वारा आत्म-रमणता के अथक पुरुषार्थ-प्रयत्न में जो अनवरत लगे रहते हैं. वे ही सच्चे परि. श्रमी सच्चे 'श्रमण' हैं, और पुष्ट आत्मानन्द को प्रदान करने वाले वीतराग-पथ के पथिक वे ही सच्चे साधु हैं। उन्हीं के सुलगे हुये दिलदीपक के निश्चय और आश्रय से ही मुमुक्षुओं का दिल का दीया सुलग सकता है, क्योंकि उन्हें स्व-पर तत्व का साक्षात्कार होने से वे ही तत्त्व रहस्य को अनुभव-बल द्वारा यथास्थित प्रकाशित कर सकते हैं, अतः सद्गुरु के रूप में मुमुक्षुओं को उनका ही संग-प्रसंग रखना चाहिये। दूसरे बुझे हुये दिल दीपक वाले अनुभव-शून्य वाचा-ज्ञानी मात्र द्रव्य-लिंगियों को असद्गुरु समझकर उनके संग-प्रसंग से सदा बचते रहना चाहिए, क्योंकि वे केवल क्रिया-जड़त्व किंवा शुष्कज्ञान की जाल में उलझा कर अन्धमाग-परम्परा के दुराग्रह में फंसा देते हैं। लाखों लोग भक्त होना ओर राजे-महाराजे द्वारा पूजाना ये कोई सद्गुरु के लक्षण नहीं है, किन्तु सद्गुरु का मुख्य लक्षण तो आत्मज्ञान
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