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आत्मज्ञान होने के पश्चात् निद्राकाल में भी आत्म प्रतीति बनी रहती है। क्योंकि अपने उपयोग को चैतन्य-पिण्ड में ही लगा कर आत्मज्ञानी शरीर को लिटाते हैं, अतः उनकी निद्रा भी योग-निद्रा कहलाती है। जब तक आत्म-प्रतीति-धारा अखण्ड बनी रहे किन्तु निवृति और प्रवृत्ति मात्र में आत्म लक्ष न जम पाये तब तक साधकीय इस दशा को अविरति-सम्यक्-दृष्टि कहते हैं। आत्म-प्रतीति की अखण्डता के साथ जब तक निवृत्तिकाल में तो आत्म-लक्ष अखण्डित जमा रहे पर प्रवृत्ति काल में वह खण्डित हो जाता हो तब तक साधक की यह एक देशीय स्वरूप-लक्ष-स्थिरता रूप आत्मदशा देशविरति कहलाती है। जबकि प्रवृत्ति-मात्र में भी किसी भी देश, काल और परिस्थिति से आत्मलक्ष धारा जरा-सी भी खण्डित न हो, सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा वह सतत अखण्डित ही सिद्ध हो जाय तब साधक को इस आत्मदशा को सर्वविरति कहते हैं।
आत्मा के लक्ष को जमाये रखने-रूप प्रयोग को सम्यक्-प्रयोग कहते हैं और सम्यक्-प्रयोग पूर्वक को प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। सर्वविरति प्रधान आत्म दशा में वैसी केवल पांच ही सम्यक्-प्रवृतियाँ अवशेष रह जाती है। जब तक शरीर में क्षुधा रोग है तब तक उसके प्रशमन के लिए (१) आहार (२) निहार (३) बिहार की प्रवृत्तियाँ अनिवार्य हैं और अनिवार्य है (४) संयम के लिये संयमोपकरण का ग्रहणत्याग तथा (५) लोक प्रसंग में उचित संभाषण भी। संयम की पूरक शेष समी उपप्रवृत्तियों का इन्हीं पाँच समितियों में समावेश हो जाता है। समिति काल के अतिरिक्त तमाम निवृत्तिकाल में आत्म-रमणता के लिए आत्म-उपयोग को केवल अनुभूति के बल से मन-वचन-कायरूप त्रियोग से असंग करके उसे स्व-स्वरूप में गुप्त रखना ही त्रिगुप्ति कहलाती है। साधक की यह स्वरूप-गुप्त आत्मदशा ही अप्रमत्त-सर्वविरतिदशा किंवा परमहंसदशा कहलाती है। इस सर्वोत्तमदशा से नीचे
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