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१०. श्री शीतल जिन-स्तवनम् अनेकान्तवाद तो समन्वयवाद है-संशयवाद नहीं :
एकदा सन्त आनन्दघनजी की अवधूत आत्मदशा और अथाह विद्वता को सुनकर उनके सत्संग में विभिन्न सम्प्रदाय के दार्शनिक विद्वान मिल कर आये। उनमें से एक नामांकित विद्वान ने प्रसंगोपात दार्शनिक चर्चा छेड़ दी।
पंडित-बाबा ! तीर्थङ्करों का अनेकान्तवाद तो एक ही तत्व में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों को बताकर के संशय ही पैदा करा देता है, पर तत्त्व निर्णय नहीं करा पाता, अतः उसे संशयवाद कहना क्या अन्याय है ?
सन्त आनन्दघनजी-सुज्ञ महाशय ! अनेकान्तवाद तो केवल समन्वयवाद है-संशयवाद नहीं पर उसका वास्तविक रहस्य समझे बिना ही उसे संशयवाद कह देना, यह तो अपनी समझ का ही अपराध है।
अनेकान्तवाद का रहस्य इस प्रकार है :
अमुक विवक्षित वस्तु के प्रति ज़बकि परस्पर विरोधी धार्मिक दृष्टि भेद देखने में आते हों, तब उन सभी दृष्टि भेदों का समन्वय करके उनमें से वास्तविक दृष्टि भेदों को उचित स्थान देकर विरोध को मिटा देना ही अनेकान्तवाद किंवा स्याद्वाद है। वास्तव में इसी के माध्यम से सर्वाङ्गीण तत्व निर्णय हो कर धर्म-कलह का शमन होता है, जिसके फलस्वरूप जिज्ञासुओं को मध्यस्थता और समरसता की अनुभूति होती है।
वस्तु के स्वरूप को दिखलाने वाली वाक्य-रचना मूलतः त्रिभंगीरूप में होती है। जैसे कि आप तत्त्व-सामान्य की दृष्टि से नित्य है और तत्त्व की अवस्था विशेष की दृष्टि से अनित्य हैं, पर तत्त्व
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