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सामान्य की दृष्टि से अनित्य नहीं हैं और अवस्था - विशेष की दृष्टि से नित्य नहीं है । इसी तरह आप नित्य, अनित्य आदि शब्द द्वारा तत्तदूप में प्रतिपाद्य होने पर भी समग्र रूप में किसी एक ही शब्द द्वारा कहे नहीं जा सकते अतः अवक्तव्य हैं । फलतः आप ( १ ) कथंचित हैं, (२) कथंचित नहीं है और (३) कथंचित अवक्तव्य हैं - यह संशय नहीं प्रत्युत निश्चित बात है ।
विरोधी वादों की समीकरण - भावना ही इस त्रिभंगी की प्रेरक है और वस्तु के स्वरूप का सर्वांगी परीक्षण करके यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना - यही इस त्रिभंगी का साध्य है ।
बुद्धि में प्रतिभासित वस्तु के किसी भी धर्म के प्रति मूलतः (१) स्यादस्ति ( २ ) स्यान्नास्ति और (३) स्यादवक्तव्य - इन तीनों विकल्पों का ही सम्भव है और चाहे जितने शाब्दिक परिवर्तन से उनकी संख्या बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय तो भी इन तीन भंगों की पारस्परिक संयोजना से उत्पन्न ( ४ ) स्यादस्तिनास्ति (५) स्यादस्ति अवक्तव्य (६) स्यान्नास्ति - अवक्तव्य और (७) स्यादस्तिनास्ति युग पद वक्तव्य - इन चार भंगो को मिलाकर कुल सप्तभंग ही हो सकते हैं, अधिक नहीं, अतः इसी का दूसरा नाम सप्तभंगी भी है । तीर्थङ्करो का यह त्रिभंगी किंवा सप्तभंगी स्याद्वाद - न्याय अनुपम - सत्य है, फिर भी अपनी समझ के अपराध वश उसे संशयवाद कह देना - यह तो सत्य पर ही अन्याय करना है ।
१. पण्डित - ओहो ? आत्मा को वस्तु स्थिति का सत्य - समाधान देकर वास्तविक शीतलता - शान्ति प्रदान करने वाला शीतल - जिननाथ का यह विविध भंग युक्त त्रिभंगी - न्याय अत्यन्त सुन्दर है, यह तो हमारे मन को भी मोह लेता है । इसकी खरी-खूबी का तो हमें भान ही नहीं था, अतः इस ओर हमारी कटाक्ष बुद्धि रही । भगवन् ! हमारे इस अपराध की हम सच्चाई से क्षमा चाहते हैं । वास्तव में तीर्थङ्करों
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