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________________ प्रत्तिपत्तिपूजा-भाव पूजा से ज्यों-ज्यों स्वभाव-स्थिति राधती जाती है, त्यों-त्यों स्वस्वरूप की स्वतन्त्रता में बाधक घाती-कम-मल का उपशमन किंवा क्षय एवं अघाती कर्मों की परिक्षीणता तथा अभाव होता जाता है, और तदनुसार स्वस्वरूप की प्रतिपत्ति अर्थात् प्राप्ति भी होती जाती है जिसे प्रतिपत्ति पूजा कहते हैं। इसके तीन भेद हैं : १. घातीकर्ममल के सर्वथा उपशमन से होने वाली स्वस्वरूप प्राप्ति कि जो उपशम श्रेणि-आरूढ़ को ग्यारहर्वे गुणस्थान में होती है। २. धातीकर्ममल के सर्वथा क्षय से होने वाली स्वस्वरूप-प्राप्ति कि जो क्षपक श्रेणि-आरूढ़ को बारहवें गुणस्थान में होती है। ३. अवशेष केवल अघाती-कर्मों से टिके हुए द्रव्य-मन, वचन और काययोगों की अवस्थिति में अनुभव में आनेवाली स्वस्वरूप प्राप्ति कि जो सम्पूर्ण कैवल्यदशा प्रधान तेरहवें गुणस्थान में होती है। इस प्रकार यह समस्त पूजा-विधान-रहस्य श्री केवलज्ञानियों ने बताया था, जिसे श्री गणधरों ने उत्तराध्ययन-सूत्र में संकलित किया था पर काल-दोष से विसर्जन हो गया। ८. इस तरह पूजा के बहुत-से भेद और रहस्य को गुरुगम पूर्वक सुनकर जो भव्य जीव यह सुखदायक शुभक्रिया-रूप प्रभुपूजन करेगा, वह परिपूर्ण पुष्ट आत्मानन्द युक्त पूज्य परमात्म-पद पर आरूढ़ होकर जन्म-मरण से मुक्त सिद्ध लोक में स्थिर हो जाएगा। ५२ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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