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का परीक्षण करके हेय, ज्ञेय और उपादेय के विवेक पूवक पर द्रव्य पर-भाव और उनके निमित्त से उत्पन्न होने वाले अपने सभी विभावों से मुँह मोड़ कर निज अनुभव परिमाण स्वभाव में स्थिति करना- यही भाव पूजा है; और स्वभाव स्थिति तो तभी सम्भव है जब कि द्रव्य पूजा प्रभृति प्रभु भक्ति द्वारा भाव-विशुद्धि करके चित्तशुद्धि की जाय । ज्यों-ज्यों द्रव्य-पूजा में तन्मयता होती है त्यों-त्यों भाव-विशुद्धि होती है; और ज्यों-ज्यों भाव-विशुद्धि सधती है त्यों-त्यों चित्त-शुद्धि अर्थात् ज्ञान की निर्मलता सधती है। अतः भाव-पूजा में द्रव्य-पूजा पुष्ट निमित्त कारण ही है। प्रभु के साकार स्वरूप को लक्ष्य बनाकर सहजात्म-स्वरूप की स्मृति दिलाने वालो मंत्र-स्मरणधारा को अखण्ड बनाये रखना-यह तो द्रव्य पूजा की पीठिका मात्र है। और उस लक्ष्य के लक्ष के लिए जिनमुद्रा अनिवार्य है क्योंकि जैसे स्व-स्वरूप को समझने के लिये जिनवाणी अनन्य निमित्तकारण है, वैसे ही स्वरूप प्राप्ति के लिये जिनमुद्रा अनन्य निमित्त कारण है। जैसे जिनवाणी साक्षात् नहीं, स्थापना मात्र है फिर भी वह स्वस्वरूप समझने में उपकारी हो सकती है। वैसे ही जिनमुद्रा साक्षात् नहीं, स्थापना मात्र हो, तो भी वह स्वस्वरूप-प्राप्ति में उपकारी ही हो सकती है। अतः भावपूजा के लिये द्रव्य पूजा नितान्त आवश्यक है। क्योंकि द्रव्यपूजा द्वारा भावपूजा सधने पर स्वस्वरूप की अप्राप्ति-रूप दुर्भाग्य से उत्पन्न जन्ममरण-परम्परा मूलक चारों ही गतियों का परिभ्रमण मिट जाता है।
पूजन की परिसमाप्ति के अवसर में क्रमशः अस्त्र और विसर्जनी मुद्रा पूर्वक प्रभु-प्रतिमा में स्थापित स्व-ज्ञायक-सत्ता उत्थापन करके उसे ब्रह्मरंध्र मार्ग से पूरक पवन द्वारा अपने हृदय कमल में पुनः स्थापन कर देना चाहिये; और जिन बिम्ब भी वेदी पर सविधि स्थापन कर देना चाहिये।
७. पूजन का चौथा भेद प्रतिपत्ति-पूजा है, जिसका रहस्य निम्न प्रकार है :
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