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रूप अवस्था त्रिक ( ९ ) का उद्भावन करके भाव - पूजन में प्रवेश करके (१०) पूजा त्रिक की पूर्ति करनी चाहिये । इस तरह यह दसत्रिक# का समाचरण समाचरणीय है ।
* तिन्नि निसीही तिन्नि य, पयाहिणा तिन्नि चेव य पणामा । तिविहा पूआ य तहा, अवत्थतिय भावणं चेव ॥ १८० ॥ ति दिसि निरक्खण विरई, पयभूमि पमज्जणं च तिक्खुत्तो । वन्नाइ तियं मुद्दातियं च तिविहं च पणिहाणं ॥ १८१ ॥ - श्री शान्ति सूरि विरचित चैत्यवन्दन महाभाष्ये ।
भाव पूजा के अवसर में भी प्रभु पर अलंकार आदि स्थायी बनाये रखने का आग्रह देव मूलक मताग्रह है - सत्याग्रह नहीं, अतः मुमुक्षु के लिए वह य है ।
इस द्रव्य पूजा का फल दो प्रकार का श्री गुरुमुख से हमें सुनने में आया है - एक अनन्तरफल और दूसरा परंपर- फल । जिसे सौभाग्यवश सद्गुरु आज्ञा हाथ चढ़ गई, उसे तो मानो सब कुछ सिद्ध हो चुका। क्योंकि "आणाए तवो, आणाए संयमो” – ऐसा आज्ञा माहात्म्य जिनवाणी में जगह-जगह बताया गया है । और यह बात है भी सही, क्योंकि सच्चाई पूर्वक आज्ञाधीन साधना से चित्त-शुद्धि होकर ही रहती है । अतः प्रभु भक्ति द्वारा आज्ञा के निरन्तर प्रतिपालन से चित्त शुद्धि का निरन्तर होते रहना यह अनन्तर फल हैं; और क्रमशः परिपूर्ण चित्त शुद्धि होने पर सिद्धगति अथवा होने पर उत्तम देव गति की प्राप्ति - परम्पर फल है । भ्रम छोड़ कर विशुद्ध भाव से निरन्तर जिन पूजन करके उत्तम गति को प्राप्त करो। अधिक क्या कहूँ ? अब तीसरी भाव पूजा का रहस्य सुनिये
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भाव पूजा - नय, प्रमाण, निक्षेप आदि द्वारा षट् - द्रव्य, नवतत्व आदि अनेक प्रकार की सुविचार श्रेणियों से स्व- समय और पर समय
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अपूर्ण चित्तशुद्धि
अतः हे भव्यों !
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