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वास्तव में यह सर्वोपचार पूजा प्रथमतः प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा की ही होती है अतः इसका यहाँ अग्रपूजा में ही समावेश है ।
द्रव्य पूजा के प्रारम्भ में सर्व प्रथम एकाग्रचित्त से जिनप्रतिमा को स्थापना-मेरु के पाण्डुशिला-स्थित सिंहासन ऊपर अतीव आदर पूर्वक विराजमान करना चाहिये। फिर अपने हृदय कमल पर चैतन्य भाव का कुम्भक करके वहाँ से अपनी ज्ञायक-सत्ता का रेचक पवन द्वारा ब्रह्मरंध्र से आह्वाननी-मुद्रा पूर्वक जिन प्रतिमा में आह्वान करके और फिर क्रमशः स्थापनी तथ सन्निधापनी मुद्रा द्वारा उसका वहीं स्थापन और सन्निधिकरन करना चाहिये। फिर प्रभु-मूर्ति में भगवान की च्यवन और जन्म कालीन क्षायिक-सम्यक्त्व-प्रधान ज्ञानदशा का उद्भावन करके अपनी दर्शन-विशुद्धि के हेतु स्वरूपानुसन्धान पूर्वक शक्रेन्द्र वत् द्रव्य-पूजन-क्रम निम्न बातों को ध्यान में रख कर ही शुरु करना चाहिये।
पूजन के समय अपनी दृष्टि प्रभु में इतनी तल्लीन हो जानी चाहिये कि जिससे अपनी उपर, नीचे और तीरछे (त्रिदिशि निरीक्षण विरति) (१) किंवा दायीं, बांयी और पीछे की ओर कौन है उसका अपने पता ही न चले; (२) और वैसी ही मानसिक, वाचिक एवं कायिक एकाग्रता (प्रणिधान त्रिक ५) बनी रहे। तथा पूजन पाठ पढ़ते हुये यथास्थान योग, जिन, और मुक्ताशुक्ति-इस मुद्रात्रिक (६) पूर्वक शब्द और अर्थ द्वारा जिनदशा का अवलम्बन ( वर्णत्रिक ७) जरा-सा भी न छूटे।
अंग-अग्र-रूप द्रव्य पूजा की परिसमाप्ति होने पर जन्म-कल्याणक प्रत्ययी सर्वोपचार पूजा विधि से जो प्रभु को मुकुट, कुण्डल, आदि अलंकारों से अलंकृत किया गया था, वे सभी के सभी अलंकार आदि दूर करके द्रव्य पूजा के त्याग सूचक तृतीय 'निसीहि' (5) शब्दोच्चार करके प्रभु मूर्ति में तपस्वी छद्मस्थ मुनिदशा, कैवल्य दशा और सिद्ध दशा
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