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द्रव्य से पूजात्रिक
पंचोवयार जुत्ता, पूया अट्ठोवयार कलिया य । इड्डिविसेसेण पुणो, भणिया सव्वोवयारा वि ॥ २०९॥ तहियं पंचुवयारा-कुसुम-उक्खय-गंध-धूप-दीवेहिं । फल-जल-नेवजेहिं, सह ऽरूवा भवे सा उ ॥ २१० ।। सव्वोवयार जुत्ता, ण्हाण-ऽञ्चण-नट्ट-गीयमाईहिं । पव्वाइएसु कीरइ, निच्चं वा इड्डिमंतेहिं ।। २१२ ।।
-शान्तिसूरि विरचित चैत्यवन्दन महाभाष्ये । द्रव्य से पूजात्रिक का आगम-कथित रहस्य हमने श्री सद्गुरु मुख से निम्न प्रकार सुना है :____ अंग पूजा-जिसने पूजन किये बिना भोजन-त्याग की प्रतिज्ञा अंगीकृत कर ली है और सफर में जिनालय का अभाव है तो उसके लिये अपने नियम के प्रतिपालन के हेतु ऐसी विधि है कि वह स्वयं अपने अंग अर्थात् हाथों ही शुद्ध मिट्टी आदि की तात्कालिकी जिनप्रतिमा बनावे और पुष्प, अक्षत, सुगन्धित वासचूर्ण, धूप और दीपकइन पाँच प्रकार के उत्तम द्रव्यों से पञ्चोपचारी ही जिन-पूजन करे क्योंकि मृन्मय मूत्ति के उपर जलाभिषेक आदि नहीं हो सकता। पूजन के बाद विसर्जन विधि से वह बिम्ब जलाशय में विसर्जन कर दे।
अग्रपूजा-अग्र प्रथमतः प्रतिष्ठित धातु, रत्न, काष्ठ किंवा पाषाण आदि की जिन प्रतिमा की पूजन विधि तो पुष्प, अक्षत, धूप, दीपक, चन्दन आदि गन्ध नैवेद्य फल और जल-ये सब मिलाकर आठ प्रकार के उत्तम द्रव्यों से ही करनी चाहिए।
सर्वोपचार पूजा-जन साधारण के लिये पर्व-दिवसों में और ऋद्धिमानों के लिये नित्य अष्ट द्रव्यों के उपरान्त नृत्य, संगीत आदि के विस्तार पूर्वक जिनपूजन करना चाहिये। इस पूजा के १७, २१, १०८ आदि अनेक प्रकार हैं।
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