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श्री सुविधि जिन स्तवन ( राग केदारो-इम धन्नो धण नै परचावै–ए देशी ) सुविधि जिनेसर पाय नमीन, शुभ करणी इम को रे। अति घण उलट अंग धरीनै, प्रह ऊठी पूजीजै रे॥ सु० ॥१॥ द्रव्य भाव सुचि भाव धरी ने, हरखै देहरे जइये रे। दह तिग पण अहिगम सांचवतां, एकमनां धुर थइये रे ॥ सु० ॥२॥
कुसुम अक्खत वर वास सुगन्धी, धूप दीप मन साखी रे। अंग पूजा पण भेद सुणी इम, गुरु मुख आगम भाखी रे ॥ सु० ॥३॥ एहनूं फल दुइ भेद सुणीज, अन्तर नै परम्पर रे। आणा पालन चित्त प्रसत्ति, मुगति सुगति सुर-मन्दिर रे ॥ सु० ॥४॥ फल अक्खत वर धूप पइवो, गंध निवेज फल जल भरि रें। अंग अन पूजा मिलिअड विधि,भावे भविक शुभ गति वरि रे ॥सु०॥५॥ सतर भेद इकबीस प्रकारे, अट्ठोत्तर सत भेदे रे। भाव पूजा बहु विधि निरधारी, दोहग दुरगत छेदे रे ॥ सु० ॥६॥ तुरिय भेद पडिवत्ती पूजा, उपसम खीण सयोगी रे। चउहा पूजा उत्तराझयणे, भाखी केवल भोगी रे॥ सु० ॥७॥ इम पूजा बहु भेद सुणीने, सुखदायक सुभ करणी रे। भविक जीव करसे ते लहसे, 'आनन्दघन' पद धरणी रे॥ सु० ॥६॥
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