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________________ अबन्ध्य ही होता है। क्योंकि जसा कारण वैसा ही कार्य होता है। जिस क्रिया फल से मोक्ष तक की चाह और चतुर्गति-परिभ्रमण मिट जाता हो वह फल-अवञ्चक किंवा अवञ्च्छक है। ७. हे अन्तरात्मा ! अपने को अवञ्चक-योग के रूप में प्रेरक-तत्व की अनिवार्यता है, और सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर भगवान के प्रत्यक्ष योग के बिना उसकी पूर्ति का होना असंभव है, जबकि वैसे प्रत्यक्ष-योग का इस काल इस क्षेत्र में सर्वथा असम्भव है। अतः उस अवसर की प्रतीक्षा करना तुम्हारे लिये नितान्त आवश्यक है कि जिस अवसर में साक्षात जिनेश्वर भगवान ही हमें प्रेरक-रूप में मिल जाँय। उनके चरण-शरण में जाकर उनका अनुसरण करने पर ही अपनी कार्य-सिद्धि होगी। क्योंकि आत्मानन्द से परिपुष्ट प्रभु चरण ही मनोवाञ्छित पूर्ण करने के लिये मानो साक्षात् कल्पवृक्ष हैं। उनकी कृपा होने पर बड़ी सुगमता से अवशेष मोहनीय कर्म का क्षय भी हो जायगा और अपना सम्पूर्ण-कैवल्य-दशा का कार्य भी बन जायगा । [ ३९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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