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________________ सौभाग्य वश मुझ यह अपूर्व मानव-स्वाँग मिला कि जिसमें अपूर्व जैन दर्शन की वास्तविक उपलब्धि हुई, और तेरे सहारे बीज-कैवल्य दशा में प्रवेश करके अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त स्थिति भी प्राप्त कर ली, पर मार्ग के बीच में ही रुके रहना मुझे किसी तरह भी अभीष्ट नहीं, अतः तू या तो आगे का रास्ता दिखादे अथवा रास्ता दिखलाने वाले को मुझे मिला दे। __अनुभूति-हे अन्तरात्मा ! अब आगे का मार्ग और मार्ग-दर्शक के विषय में आगमों से तुम स्वयं जान कर अपने मन में निश्चित करलो और निर्मल भक्ति करो। ६. अजी ! तुम जानते ही हो कि पारमार्थिक दृष्टि से साध्य की सिद्धि के लिये आगमों में योगावञ्चक, क्रियावञ्चक और फलावञ्चकरूप अवञ्चक-त्रयी को अनिवार्य बताया गया है। जिनका कर्म-मल गल गया हो वैसे निष्काम साधु-पुरुष सजीवन मूर्ति का प्रत्यक्ष मिलना और शुद्ध मन वचन-काय से साधक का उनके चरणों में समर्पित हो जाना—यही अवञ्चक-गुरू का योग अवञ्चक है, क्योंकि गुरु यदि सकामी होगा तो वह परमार्थ की दुहाई देकर शिष्य को ठग लेगा; अतः वाञ्च्छापूर्ण गुरु के मिलने को वञ्चक योग कहा है जो कि मुमुक्षु के लिये अभीष्ठ नहीं है । सद्गुरु की आज्ञानुसार शिष्य की मानसिक, वाचिक और कायिक शुद्ध प्रवृत्तियों द्वारा निष्काम-भक्ति का होना यही अवञ्च्छक शिष्य की भक्ति-क्रिया अवञ्चक है। यदि शिष्य के हृदय में कोई भी सांसारिक कामना है तो क्रिया भी तदनुसार कामनापूर्ति के लिये संसार मूलक होगी जो कि आत्म-वञ्चना है अतः वह मुमुक्षु के लिये अभीष्ठ नहीं है । इस तरह योग-अवञ्चक द्वारा निमित्त को निमितकारणता और क्रिया-अवञ्चक द्वारा उपादान को उपादान कारणता मिल जाने पर पारमार्थिक कार्य सिद्धि-रूप क्रिया-फल भी अवच्छक, अवञ्चक और ३८ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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