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खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची समय जैनतेर लोग वीतराग मार्ग से प्रभावित होकर शासनोद्धार में सहयोगी बने तथा मठवासी, चैत्यवासो लोग भी अपनी शुद्धि कर, सुविहित उप-सम्पदा ग्रहण कर स्व-पर-कल्याण पथ के पथिक बने। वर्द्धमानसूरि :
अभोहर देश के चौरासी चैत्यों के अधिपति जिनचन्द्र के शिष्य वर्द्धमान ने सुविहित आचार्य उद्य तनसूरिजी के पास अ कर त्याग वैराग्य पूर्वक उप-सम्पदा ग्रहण की और वद्धमा सरि बने। उनके पास महान् प्रतिभा सम्पन्न जिनेश्वर और बुद्धिसागर भ्राताओं और कल्याणमति बहिन ने दीक्षा लो। वर्द्धमानसूरि जब पाटण पधारे तब उनके साथ १८ ठाणा अर्थात् १७ शिष्य थे, जिनके नाम अन्वेषणीय हैं। वद्धमानसूरि ने जिनेश्वर और बुद्धिसागर को आचार्य पद दिया । चंत्य नासियों पर विजय प्राप्ति स्वरूप खरतर-विरुद प्रसिद्ध हुआ और यहीं से सुविहित विधि-मार्ग, कोटिक गण चन्द्र कुल वज्रशाखा में खरतरगच्छ कहलाने लगा।
जिनेश्वरसूरि :
श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज के जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि आदि आचार्य एवं धर्मदेव, सुमति, विमल आदि अनेक शिष्य उपाध्याय हुए। धर्मदेवोपाध्याय और सहदेव दोनों भाई थे। धर्मदेवोपाध्याय ने हरिसिंह व सर्वदेव भ्राताओं तथा सोमचन्द्र को शिष्य बनाया।
सहदेव गणि ने अशोकचन्द्र को अपना शिष्य बनाया जिसे जिन चन्द्रसूरि ने सुशिक्षित कर आचार्य पदारूढ़ किया। इन्होंने अपने स्थान पर हरिसिंहाचार्य को स्थापित किया। प्रसन्नचन्द्र और देवभद्र नामक दा सरि और थे । देवभद्रसूरि सुमति उपाध्याय के शिष्य थे । प्रसन्न चन्द्र आदि चार शिष्यों को अभय देवसरिजी ने न्याय शास्त्रादि पढ़ाये-१. प्रसन्नचंद्र, २. वर्द्धमान, ३. हरिभद्र, ४. देवभद्र । डिडियाणा में प्रवत्तिनी मरुदेवी ने ४० दिन का संथारा लिया हुआ था उसे संलेखना कराई। उन ग थाओं में 'तुम्ह गच्छम्मि' लिखा है। इनके सिवाय विस्तृत मुनि मण्डल
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