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पूर्व इतिहास
भगवान महावीर का शासन चढ़ती-पड़ती १३ उदयों के बावजूद भी इकोस हजार वर्ष तक अखण्ड रहेगा, इन आप्त-वचनों के अनुसार आचार-शैथिल्य और चैत्यवास के अन्धकार युग की अनुभूति श्री हरिभद्रसरि जैसे महान् आचार्य ने अपने शिरःशल के रूप में सम्बोध प्रकरण में अभिव्यक्त की है। उनके समय में चैत्यवास के उन्मूलन का काल परिपक्व नहीं हुआ था, फिर भी सुविहित साधु-वर्ग का सर्वथा दुष्काल नहीं था। तिमिरावसान का समय आया और चेत्यवास के अस्तंगत होने के हेतु उदय काल का प्रादुर्भाव हुआ तथा आगम-सम्मत आचारसम्पन्न मह पुरुषों का तेज प्रसरित होने लगा; जिसके प्रभाव से बौद्धधर्म को भांति भारत से लुप्त होते-होते जैन धर्म बच गया, तीर्थंकर-वाणी सत्य हो गई। बौद्धधर्म तो अपनी सुविधावादी नीति से विदेशों में भी पर्याप्त खप गया, पर जैन धर्म अपने चुस्त आचार-विचारों के कारण विदेशों में कथंचित विस्तार पाकर भी स्थायित्व प्राप्त करने में अक्षम रहा। शिथिलाचार प्रवाहित चैत्यवासियों में आध्यात्मिक चेतना वाले त्यागवैराग्य सम्पन्न सन्त-महात्मा शुद्ध मार्ग को ओर उन्मुख हुए, श्रावकगण भी उनके प्रभाव से मुक्त होकर विधि-मार्ग की ओर आकृष्ट हुए। जैनाचार्यों ने क्षत्रिय, ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्यादि जातियों के नये खून से नव्य प्रतिबोधित जातियों से जैन प्रजा में नव चेतना का संचार किया और धर्म को सुव्यवस्थित रूप दिया। इस विषय के महत्वपूर्ण कार्य सर्जक दादा जिनदत्तसरि और उनके पूर्व व पश्चात्वर्ती ज्योतिर्धरों के नाम उल्लेख योग्य हैं। स्वर्गीय दादा जिनदत्तसूरिजी ने गुरुदेव श्री सहजानन्दजी महाराज से यह रहस्य बतलाया था कि हमारे समय में जो योग्यता जैनेतरों में थी वह आज जैनों में भी नहीं है। तभी उस
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