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गणधर गौतम : परिशीलन
करते हुए लिखा है:-“गो-दुग्ध में मिश्री, व्याख्यान के रस में मधुर सुभाषित की भांति पालादजनक, गच्छभार निर्वाह में अपने विशिष्ट सहयोगो सहायक, समस्त विद्या नदियों के समुद्र (श्री विनयप्रभोपाध्याय) से संगम बहुत दिनों के बाद हुप्रा।" इन उपमाओं से विनयप्रभोपाध्याय का गच्छ में कितना महत्वपूर्ण स्थान था इसका आभास मिलता है। प्राचार्य जिनोदयसूरि के अत्याग्रह से विनयप्रभ भी इस संघ यात्रा में सम्मिलित हुए। (पृ. २७)
शत्रुजंय तीर्थ की यात्रा-पूजा करने के पश्चात् संघ गिरिनार तीर्थ की यात्रा के लिये चल पड़ा । महोपाध्याय विनयप्रभ शारीरिक दृष्टि से सशक्त न थे, अतः वे संघ के साथ गिरिनार तीर्थ न जाकर स्तम्भतीर्थ (खम्भात) चले गए।
(पृ. ३१) वि. सं. १४३२ भाद्रपद वदि ११ को पाटण में जिनोदयसूरि का स्वर्गवास हुआ और १४३३ फाल्गुन कृष्णा ६ के दिन पाटण में ही लोकहिताचार्य ने जिनराजसूरि को पट्ट पर स्थापित किया। इन दो वर्षों के अन्तराल में महोपाध्याय विनयप्रभ का नामोल्लेख कहीं देखने में नहीं आता; अतः १४३२-३३ के मध्य में ही इनका स्वर्गवास हो गया हो, ऐसा प्रतीत होता है । परम्परागत श्रुति के अनुसार इनका स्वर्गवास खम्भात में ही हुआ था।
महोपाध्याय विनयप्रभ गीतार्थ एवं सर्वमान्य विद्वान् थे । इनके द्वारा सर्जित कुछ कृतियां प्राप्त हैं, सूची इस प्रकार है :
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