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गणधर गौतम : परिशीलन
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परन्तु, परन्तु, लाखों देवता पावापुरी की ओर भागे जा रहे हैं, शब्द लहरी अवरुद्ध कण्ठों से निकल रही है, पर क्यों ?........? और, प्रभ की वाणी थी--"देवगण असत्य नहीं बोलते" ध्यान में आते ही गौतम का रोम-रोम विचलित कम्पित हो उठा। वे निस्तब्ध से हो गये । “निर्वाण" जैसे प्रलयकारी शब्द पर विश्वास होते ही असीम अन्तर्वेदना के कारण मुख कान्तिहीन | श्यामल हो गया, अांखों से अजस्र अश्रुधारा बहने लगी, आँखों के सामने अंधेरा छा गया, शरीर और हाथपैर कांपने लगे, चेतना-शक्ति विलुप्त होने लगी और वे कटे वृक्ष की भांति धड़ाम से पृथ्वी पर बैठ गये । बेसुध से, निश्चेष्ट से बैठे रहे । कुछ क्षणों के पश्चात् सोचने समझने की स्थिति में आने पर समवसरण में विराजमान प्रभु महावीर और उनके श्रीमुख से निःसृत हे गौतम ! का दृश्य चलचित्र की भांति उनकी आँखों के सामने घूमने लगा और वे सहसा निराधार, निरीह, असहाय बालक की भांति सिसकियां भरते हुए विलाप करने लगे
"मैं कैसा भाग्यहीन हूँ, भगवान् के ग्यारह गणधरों में से नव गणधर तो मोक्ष चले गये, अन्य भी अनेक आत्माएँ सिद्ध बन गईं; स्वयं भगवान् भी मुक्तिधाम में पधार गये, और मैं प्रभु का प्रथम शिष्य होकर भी अभी तक संसार में ही रह रहा हूँ। प्रभु तो पधार गये, अब मेरा कौन है ?"
अन्तर् की गहरी वेदना उभरने लगी। दिशाएँ अन्धकारमय और बहरी बन गईं। चित्त में पुनः शून्यता व्याप्त होने लगी । तनिक से जागृत होते ही पुनः उपालम्भ के स्वरों में बोल उठे
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