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गणधर गौतम : परिशीलन
के पास आये और सारा घटनाक्रम उनके सन्मुख प्रस्तुत कर
पूछा
भगवन् ! उक्त आचरण के लिये श्रमणोपासक श्रानन्द को प्रालोचना करनी चाहिए या मुझे ?
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महावीर ने कहा- गौतम ! गाथापति श्रानन्द ने सत्य कहा है, ग्रतः तुम ही आलोचना करो और श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा याचना भी ।
गौतम 'तथास्तु' कह कर, लाई हुई गोचरी किये बिना ही उलटे पैरों से लौटे और आनन्द श्रावक से अपने कथन पर खेद प्रकट करते हुए क्षमा याचना की ।
- उपासकदशा प्र. १ सू. ८० से ८७
इस घटना से एक तथ्य उभरता है कि गुरु गौतम कितने निश्छल, निर्मल, निर्मद, निरभिमानी थे । उन्हें तनिक भी संकोच का अनुभव नहीं हुआ कि मैं प्रभु का प्रथम गणधर होकर एक उपासक के समक्ष अपनी भूल कैसे स्वीकार करूं एवं श्रावक से कैसे क्षमा मांगू । यह उनके साधना की, निरभिमानता की कसौटी / अग्नि परीक्षा थी, जिसमें वे खरे उतरे ।
श्रमरण केशीकुमार :
एक समय पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्य, अवधिज्ञान एवं श्रुतज्ञान से प्रबुद्ध केशीकुमार श्रमण सपरिवार श्रावस्ती नगरी के निकट तिंदुकवन में पधारे और इधर गणधर गौतम भी सपरिवार विचरण करते हुए श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान में पधारे ।
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