________________
कथा णेमिणाहचरिउ की/81 देता है। और अन्त में ज्ञानदेवी वागेश्वरी से कवि क्षमा मांग लेता है कि जो कुछ ग्रन्थ में हीनाधिक कहा गया हो, उसे वह क्षमा करे
जं हीणाहिउ किड वाएसरि गाणदेवि तं खमइ परमेसरि।। यह ग्रन्य काव्य की अपेक्षा नैतिक उपदेश का ग्रन्थ है। नेमिकुमार जब तपस्या करने लगते हैं तब राजमती एवं उसकी सखियों को इंन्द्रिय-सुख की असारता समझाते हुए कहते हैं कि जो इंन्द्रिय-सुख को ही सब कुछ मानता है वह गवार राख के लिए गोशीर चंदन को जलाता है, आसन के लिए भारी शिला को कंधे पर ढोता है, माणिक्य को देकर गुजाफल ग्रहण करता है, क्षणिक लाभ के लिए दिन-फल का भोजन करता है, कौड़ी देने पर अपने करोड़ों के द्रव्य को बेच देता है, शीतलता पाने के लिए अग्नि की ज्वाला में प्रवेश करता है और श्रेष्ठ सवारी को छोड़कर गधे पर चढ़ता है।20 ग्रन्थ में अन्यत्र भी प्रेरणादायक सुभाषितों एवं सक्तियों को कवि ने प्रस्तुत किया है। यथा
किं जीयई धम्म विवज्जिएण = धर्मरहित जीने से क्या प्रयोजन ?
सयमेव षसंसिय किं गुणेण = स्वयं की प्रशंसा में कौन सा गुण है ? इस णेमिणाहचरिउ की भाषा अपभ्रंश का विकसित रूप है। इसमें क्षेत्रीय भाषओं के विकास के संकेत उपलब्ध हैं। अनावश्यक रूप से इस ग्रन्थ की भाषा में संस्कृत के समासबहुल शब्दों का प्रयोग देखने को नहीं मिलता है। देशी शब्दों का प्रयोग भी इस ग्रन्थ में कम हुआ है। अपभ्रंश भाषा के प्रमुख छंदों-हेला, दुवई, वस्तु बंध, घत्ता, गाहा आदि का प्रयोग कवि ने किया है। अपभ्रंश में 5-6 कवियों ने णेमिणाह चरिउ नामक ग्रन्थों की रचना की है। उन सब की कथावस्तु आदि के तुलनात्मक अध्ययन के लिए लखमदेव का यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। विभिन्न प्रतियों के आधार पर इस पाण्डुलिपि का सम्पादन हमने प्रारम्भ किया है। संपादित संस्करण तैयार होने पर ग्रन्थ, ग्रन्थकार एवं मध्ययुगीन संस्कृति के सम्बन्ध में कुछ नया प्रकाश पड़ सकता है।
सन्दर्भ
1. देवेन्द्र मुनि शास्त्री "भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण-एक अनुशीलन, उदयपुर, 1971 2. जैन देवेन्द्र कुमार, रिटठणेमिचरिउ (प्रथम भाग) भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1985 3. चौधरी, गुलबचन्द्र, जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग 6, पार्श्वनाथ जैन विद्याश्रम, वाराणसी, पृ.
115-117 4. इस प्रति की प्राप्ति के लिए हम विद्वत्वर पं. दयाचन्द जी शास्त्री, उज्जैन के आभारी है। 5. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह (द्वितीय भाग), दिल्ली 1963, प्रस्तावना पृ. 89-90 6. वही, प्रशस्ति संख्या 39, पृ. 56-57 7. उज्जैन की प्रति में 'आसाद-सियतेरसि' पाठ है, जिससे स्पष्ट है कि आषाद तेरस को यह ग्रन्य
प्रारम्भ हुआ था। 8. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ, दिल्ली, 1972, पृ. 138 9. जैन, पी.सी., ए डिस्क्रिप्टिव केटलाग ऑफ मेनुस्क्रप्टस् इन 5 भट्टारकीय गन्य-भण्डार नागौर
जयपुर 1985 पृ. 130 10. श्री पद्मनंदी सिष्यमुनि मदनकीर्तितत्सिष्य व्र. नरसिंह गोराणिया गोत्रे ---------ग्रन्थ के अन्त में
अंकिता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org