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________________ 80/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन उत्साह है, उसके पास धन नहीं है और जिसके पास धन है उसे अति लोभ है, अत: वह दान नहीं कर पाता । जिसमें काम के प्रति राग है, उसके भार्या नहीं है और जिसके भार्या है, उसका काम शान्त हो गया है जसु गेहि अण्णु तसु अरुइ होइ, जसु भोयसत्ति तसु ससु ण होइ। जसु दाणु छाहु तसु दबिणु णत्थि, जसु दविणु तासु अइ लोह अत्थि। जसु मयणराउ तसु णत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छउ ण काम। संधि 3 कडवक 2 चतुर्थ संधि में नेमिकुमार की तपस्या का वर्णन है। समवसरण रचना के वर्णन के बाद जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पांच अणुव्रतों, सामायिक, चार प्रकार के दान, समाधिमरण, अनित्य आदि भावनाओं एवं धर्म के महत्व को इस संधि के 20 कड़वकों में प्रतिपादित किया गया है। धर्म की महिमा गाते हुए कवि ने उक्तंच कहकर संस्कृत का निम्न पद्य उद्धत किया है अक्ति तीर्थंकरेगुरो जिनमते संघे च हिंसानृतस्तेयवहम-परिग्रह वरु परमं क्रोधाधरीणां जयं। सौजन्यं गुणसंगमिन्द्रियदमं दानं तपो भावना वैराग्यं च कुरुथ निवृत्तिपदे यद्यस्ति गंतुं मनः ।। 1 कवि-परिचय: णेमिणाहचरिउ ( उज्जैन प्रति )की प्रथम, संधि के दूसरे कड़वक में एवं चतुर्थ संधि के अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है, उससे कवि लक्षलणदेव के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। प्रत्येक संधि के अन्त में दी गयी पुष्पिका में कहा गया है कि अबुधकवि रत्न-सुत लक्ष्मण अथवा लखमदेव के द्वारा रचित भव्यजनों के मन को आनन्द देने वाले इस णेमिणाह चरित में नेमिकुमार के जन्म नामक प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ। इस पुष्पिका में 'अबुधकविं विशेषण चिन्तनीय है। 'रयण-सुअ पद से स्पष्ट है कि कवि के पिता का नाम रतन (देव) था। रतनदेव पर-नारियों के लिए सहोदर एवं निरभिमानी, धैर्यशाली सज्जन व्यक्ति थे।कवि की माता का नाम सम्भवतःलखमाणा था, जिनका पुत्र लखमदेव विषयों से विरक्त रहता था।15 कवि लखमदेव महिषपुर एवं पुरवाडवंश का तिलक था। वह रात-दिन ज्ञान और मुनियों की वाणी में लीन रहता था। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि का समाज में अच्छा आदर था। वह धन-धान्य, पुत्र आदि से समृद्ध था और रूप से भी सुन्दर था।17 कवि लखमदेव को उनकी इस काव्य-रचना में उनके बान्धव अंबदेव ने अच्छी सहायता की थी तेण वि कयाउ गंथु अकसायहु।. बंधव अंबएव सुसहायहु ।। इस ग्रन्थ की रचना में कवि लखमदेव का उद्देश्य अपना कवित्व प्रकट करना नहीं था, अपितु उन्होंने अपने कर्मों के क्षय के लिए इस चरित को रचना था। इसमें उन्होंने प्रमाणिक चरित एवं सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है। यत्र-तत्र काव्य-गुणों का भी दिग्दर्शन होता है। फिर भी कवि अपने को अल्पज्ञ ही मानता है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही वह अपनी विनयशीलता प्रकट कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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